उत्तर प्रदेश के संभल जिले में जिस तरह हिंसा हुई, उससे साफ है कि राज्य में महज दावों में ही कानून व्यवस्था दिखती है, जमीनी हकीकत कुछ और है। वहां एक मस्जिद का सर्वेक्षण कराने के एक अदालत के आदेश के बाद की स्थितियों का आकलन इतना मुश्किल नहीं था कि उससे निपटने के लिए पूर्व तैयारी न हो। मगर आए दिन कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर सब कुछ दुरुस्त कर देने का दावा करने वाली सरकार ने यह साधारण-सी दूरदर्शिता दिखानी जरूरी नहीं समझी कि कैसी स्थिति पैदा हो सकती है। इसका नतीजा सामने आया।
लोगों के जमा हो जाने से बढ़ा तनाव
रविवार को सर्वेक्षण के दौरान धार्मिक स्थल के बाहर बड़ी संख्या में नागरिक जमा हो गए। इसके बाद तनाव बढ़ता चला गया। सवाल है कि ऐसी नौबत क्यों आई! दूसरी ओर, लोगों में भी यह धारणा क्यों बनी कि सर्वेक्षण की प्रक्रिया जल्दबाजी में की गई। क्या इस मामले में कुछ जरूरी सावधानी नहीं बरती जा सकती थी? जिला प्रशासन को जहां सभी पक्षों को वस्तुस्थिति बता देना चाहिए था, वहां इतने संवेदनशील मामले में ढिलाई बरती गई और इस मसले पर सियासत करने का कुछ दलों को मौका मिल गया।
पुलिस और जिला प्रशासन की इससे बड़ी नाकामी क्या हो सकती है कि संभल के जिस दीप सराय इलाके में सर्वेक्षण के सवाल पर तनाव और टकराव के हालात पैदा हुए और उसे संभालना उसके लिए संभव नहीं हो पाया। लोगों को समझा-बुझा कर शांत करने का विकल्प अपनाया जा सकता था। मगर आखिर ऐसी नौबत क्यों आई कि तनाव पहले टकराव में तब्दील हो गया और उसके बाद कई लोगों की जान चली गई। निश्चित रूप से यह समय पर हालात को काबू में करने में नाकामी का नतीजा था।
इससे उन दावों की हकीकत का भी पता चलता है कि सरकार किसी भी स्थिति में कानून-व्यवस्था का उल्लंघन नहीं होने देगी। सच यह है कि अधिकारियों की अदूरदर्शिता के कारण मौके पर हालात बेकाबू हुए। मगर इस हिंसक झड़प में जिन लोगों ने अपनी जान गंवाई है, इसकी जिम्मेदारी कैसे तय की जाएगी? प्रशासन की सख्ती के बाद स्थिति नियंत्रण में जरूर दिखती है, लेकिन अगर मुद्दे और वक्त की संवेदनशीलता के मद्देनजर जरूरी कार्रवाई का ध्यान रखा जाता, सावधानी बरती जाती, तो वहां जो हुआ, उसे टाला जा सकता था।