मणिपुर में बीते आठ महीने से जारी हिंसा पर काबू पाने के तमाम प्रयासों के बावजूद आज भी अगर निशाना बना कर सरेआम लोगों की हत्या की जा रही है, तो इसके लिए किसकी जिम्मेदारी बनती है! गौरतलब है कि सोमवार को कुछ हथियारबंद लोगों ने स्थानीय लोगों को निशाना बना कर ताबड़तोड़ गोलीबारी करनी शुरू कर दी। खबरों के मुताबिक, बेलगाम गोलीबारी करने वाले लोग वेश बदल कर आए थे।
इस घटना में चार लोगों की मौके पर ही जान चली गई और पांच अन्य घायल हो गए। इसके बाद स्थानीय लोगों के बीच आक्रोश फैल गया और उन्होंने इसके प्रति विरोध जताने के लिए वाहनों को आग के हवाले करना शुरू कर दिया। जाहिर है, ऐसी स्थिति में हिंसा और प्रतिहिंसा की स्थिति और जटिल होने की आशंका है। शायद यही वजह है कि चार लोगों की हत्या और हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बाद राज्य सरकार ने घाटी के कई जिलों में फिर से कर्फ्यू लगा दिया। इस घटना के पहले भी लगातार दो दिन कुकी और मैतेई समुदायों के बीच आपसी संघर्ष और कमांडो काम्प्लेक्स पर विद्रोहियों के हमले की खबरें आई थीं।
जब भी ऐसी घटनाओं को लेकर सरकार के रवैये, नाकामी और उसकी लापरवाही पर सवाल उठाया जाता है तो एक तरह से रटा-रटाया जवाब यही होता है कि शांति स्थापित करने के लिए सभी कदम उठाए जा रहे हैं, कानून का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। सवाल है कि लगातार ऐसे आश्वासनों के बावजूद आज भी चिह्नित करके आम लोगों की हत्या करने की घटनाएं क्यों सामने आ रही हैं? मणिपुर में हिंसा की शुरुआत पिछले वर्ष मई में ही हुई थी।
मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के सवाल से उठे विवाद के बाद फूटा आक्रोश हिंसक टकराव में तब्दील हो गया और तब से लेकर लगातार हिंसा में लगभग दो सौ लोगों के मारे जाने की खबरें आ चुकी हैं। कई सौ लोग बुरी तरह घायल हुए और साठ हजार से ज्यादा लोगों को अपने मूल स्थानों से विस्थापित होने का दंश झेलना पड़ा है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि मणिपुर में जातीय संघर्ष ने किस हद तक त्रासद शक्ल अख्तियार कर ली है।
इस बीच हालात पर काबू पाने के मकसद से राज्य की पुलिस के अलावा सेना तक को मोर्चे पर लगाया गया। केंद्र सरकार ने शांति समिति गठित की और सुप्रीम कोर्ट की ओर से निगरानी समिति को भी जिम्मा सौंपा गया। मगर आज भी हालत यह है कि गाहे-बगाहे हिंसा फूट पड़ती है और हथियारबंद लोगों के समूह कहीं भी गोलीबारी कर लोगों की जान ले रहे हैं।
सवाल है कि हिंसा की शुरुआत और इतना लंबा वक्त गुजर जाने के बाद भी सरकार हिंसा और अराजकता फैलाने वाले तत्त्वों के खिलाफ इस कदर लाचार क्यों नजर आ रही है। राज्य और केंद्र सरकार की ओर से प्रशासनिक स्तर पर की गई कवायदों के अलावा हिंसा पर काबू पाने के लिए सेना को उतारे जाने के बावजूद मणिपुर जैसे छोटे राज्य में आठ महीने से हिंसा जारी है, तो इसके लिए किसकी नाकामी जिम्मेदार है? जिस मुद्दे पर मणिपुर में हिंसा की आग फैली, उस मुद्दे पर संबंधित पक्षों में संवाद को लेकर आज तक नतीजा देने वाली कोई कारगर पहल नहीं हो सकी है। जबकि इस मुद्दे पर हल का कोई रास्ता निकालने का अकेला विकल्प विवाद में आमने-सामने खड़े दोनों पक्षों के बीच बातचीत ही है।