कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर कई राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच पहले से तनातनी रही है। अब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नए मसविदे पर विवाद शुरू हो गया है। केंद्रीय शिक्षामंत्री ने नए नियमों का बचाव करते हुए कहा कि यह नियुक्ति की पिछली सभी प्रक्रियाओं का पालन करता है। मगर हैरत की बात है कि कुलपतियों के चयन और उनकी नियुक्ति पर बन रहे नए मसविदे को तैयार करने से पहले राज्यों को भरोसे में नहीं लिया गया।
नतीजा यह हुआ कि न केवल गैर-भाजपा शासित राज्यों ने आपत्ति जताई, बल्कि राजग के भीतर भी सवाल उठ गए हैं। प्रमुख घटक दलों ने कहा है कि इससे राज्य सरकारें हतोत्साहित होंगी। इस पर संसद में चर्चा होनी चाहिए। दरअसल, राज्यों की आपत्ति है कि नए मसविदे से संविधान में निहित संघीय सिद्धांतों का उल्लंघन होगा।
नए नियम से निर्वाचित सरकारों की भूमिका हो जाएगी सीमित
तमिलनाडु ने तो इसे तुरंत वापस लेने का आग्रह किया है। जबकि राजग के भीतर सवाल उठा है कि इन नियुक्तियों में निर्वाचित सरकारों की भूमिका सीमित हो जाएगी। यही वजह है कि कुछ राज्य कुलाधिपति पद से राज्यपालों को दूर रखने के विधेयक पारित कर चुके हैं। यह बात और है कि राज्यपालों ने उन्हें मंजूरी नहीं दी। सर्वविदित है कि कुलाधिपति यानी राज्यपाल ही राज्य सरकार की सलाह से अंतिम चयन करते आए हैं। मगर अब वे अपनी पसंद की नियुक्ति करते दिखते हैं। इसी को लेकर प्राय: विवाद होते हैं।
कहा जा रहा है कि नए नियमों के मुताबिक विश्वविद्यालयों को दूरदर्शी और नेतृत्व क्षमता वाले कुलपति मिलेंगे, लेकिन दूसरी ओर दस साल के शिक्षण की अनिवार्यता खत्म कर दी गई है। यानी गैर-शैक्षिक क्षेत्रों के लोग कुलपति बनेंगे। जाहिर है, इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर असर पड़ेगा। चयन में आयोग के प्रतिनिधि की भी भूमिका रहेगी। ऐसे में राज्य सरकार की सलाह और उनकी ओर से भेजे गए नामों का क्या महत्त्व रह जाएगा। फिलहाल, विमर्श के बाद सभी सुझावों पर केंद्र को विचार करना होगा। केरल ने जिस तरह विरोध में प्रस्ताव पारित किया है, उससे टकराव बढ़ने का अंदेशा है। इसमें संबंधित पक्षों की चिंता दूर करने की जरूरत है।