उत्तराखंड के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश चर्चित बोम्मई मामले में दिए उसके ऐतिहासिक फैसले के अनुरूप ही है। बोम्मई मामले में न्यायालय ने कहा था कि किसी भी सरकार के बहुमत का फैसला सदन के भीतर होना चाहिए। इसी तर्ज पर उसने उत्तराखंड में शक्ति परीक्षण का निर्देश दिया है। लोकतांत्रिक तकाजा भी यही है। केंद्र ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने का आधार यह बताया था कि हरीश रावत की सरकार कांग्रेस के नौ विधायकों के बागी हो जाने के बाद अल्पमत में आ गई थी। लेकिन सवाल है कि राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले बहुमत की परीक्षा क्यों नहीं होने दी गई?
राज्यपाल ने विश्वास-मत की समय-सीमा तय कर दी थी। फिर विश्वास-मत से ऐन एक दिन पहले राष्ट्रपति शासन क्यों लगाया गया? ऐसे मामले में केंद्र कोई भी कदम राज्यपाल की सिफारिश पर उठाता है। पर उत्तराखंड में उसने विश्वास-मत संबंधी राज्यपाल के निर्देश को भी धता बता दिया। इसलिए हैरत की बात नहीं कि राष्ट्रपति शासन का फैसला नैनीताल हाईकोर्ट को नागवार गुजरा और उसने केंद्र को कड़ी फटकार लगाई थी। साथ ही राष्ट्रपति शासन हटाते हुए हरीश रावत को फिर से मुख्यमंत्री पद पर बहाल भी कर दिया था। फिर यह मामला सर्वोच्च अदालत में गया और उसने राष्ट्रपति शासन हटाने के हाईकोर्ट के फैसले पर स्थगन आदेश दे दिया। पर शक्ति परीक्षण के सर्वोच्च अदालत के निर्देश से साफ है कि उसने आंशिक रूप से हाईकोर्ट के फैसले की पुष्टि ही की है। अलबत्ता सर्वोच्च अदालत के आदेश के मुताबिक राष्ट्रपति शासन मंगलवार को शक्ति परीक्षण के दौरान सिर्फ दो घंटे के लिए हटाया जाएगा। जाहिर है, राष्ट्रपति शासन का भविष्य इस पर निर्भर करेगा कि शक्ति परीक्षण का नतीजा क्या आता है।
विधानसभा का मौजूदा गणित बताता है कि कांग्रेस के बागी विधायकों का वोट निर्णायक साबित हो सकता है। पर अभी यह साफ नहीं है कि उन्हें वोट डालने का मौका मिलेगा या नहीं। गौरतलब है कि विधानसभा अध्यक्ष ने दलबदल निरोधक कानून के तहत उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया था। नैनीताल हाईकोर्ट उनकी सदस्यता के बारे में सोमवार को यानी शक्ति परीक्षण से एक दिन पहले फैसला सुनाएगा। अगर कांग्रेस के बागी विधायकों को शक्ति परीक्षण में वोट देने का मौका मिला तो बाजी भाजपा के हाथ लग सकती है, वरना हरीश रावत के हाथ। मगर इस कथित हार-जीत से बड़ा सवाल हमारे संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक शासन प्रणाली का है।
विपक्ष में रहते हुए भाजपा राज्यों के अधिकारों पर मुखर रहती थी। अनुच्छेद तीन सौ छप्पन के दुरुपयोग के लिए वह कांग्रेस को कोसती आई थी। फिर भाजपा खुद उसी राह पर क्यों चल पड़ी? अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार को विदा किए महीना भर भी नहीं हुआ था कि उसने उत्तराखंड में वही कहानी दोहराने की तैयारी कर ली। एक ऐसे राज्य में जहां विधानसभा का कार्यकाल एक साल से कम बचा हो, सत्तारूढ़ दल में सेंधमारी के जरिए सरकार की विदाई की पटकथा लिखना राजनीतिक रूप से भी कोई समझदारी या फायदे का कदम नहीं कहा जा सकता। रावत को अपना कार्यकाल पूरा होने पर बहुत सारे सवालों का जवाब देना होता, पर भाजपा ने उन्हें हमदर्दी बटोरने का मौका दे दिया। आखिर शक्ति परीक्षण के सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव पर केंद्र को सहमति जतानी पड़ी। अगर यह मौका उसने खुद दिया होता तो लाचारी में हां कहने की नौबत न आती।