लखनऊ में एक बुजुर्ग को थप्पड़ जड़ कर उप महानिरीक्षक (डीआईजी) जैसे बड़े अधिकारी ने पुलिस का क्रूर चेहरा फिर बेनकाब कर दिया है। वर्दी की यह वहशत आमतौर पर निचले पदों पर तैनात पुलिसवालों के व्यवहार में नजर आती रही है, लेकिन डीआईजी साहब ने बुजुर्ग पर गुस्सा उतार कर बर्बरता के मामले में अपनी वरिष्ठता कायम रखी है। इससे पहले बीते साल लखनऊ में ही एक दरोगा ने सड़क किनारे टाइपिंग का काम करने वाले बुजुर्ग से मारपीट करके उनका टाइपराइटर सड़क पर फेंक दिया था। महज पचास रुपए रोजाना कमाने वाले पैंसठ साल के वे बुजुर्ग हाथ जोड़ कर विनती करते रहे लेकिन वर्दी के नशे में चूर दरोगा ने एक न सुनी और टाइपराइटर तोड़ डाला था। बुजुर्ग को थप्पड़ जड़ने की घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर प्रसारित होने के बाद हालांकि डीआईजी को निलंबित कर उनसे स्पष्टीकरण मांगा गया है लेकिन कौन नहीं जानता कि ऐसी कार्रवाइयां तात्कालिक लीपापोती से आगे नहीं जा पातीं। इससे पहले अलबत्ता टाइपराइटर तोड़े जाने के मामले में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के निर्देश पर थोड़ी उल्लेखनीय कार्रवाई हुई थी। तब दरोगा को तत्काल प्रभाव से निलंबित करने के अलावा जिलाधिकारी और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने पीड़ित के घर जाकर पुलिस के बर्ताव के लिए माफी मांगी और नया टाइपराइटर दिया था। अफसोस की बात है कि सरकार और प्रशासन की ऐसी सदाशय उदारता केवल उन्हीं मामलों तक सीमित रहती है जो मीडिया की नजरों में आ जाते हैं, बाकी मामलों में पुलिस के सलूक की न केवल अनदेखी की जाती है बल्कि उलटे पीड़ितों पर संगीन धाराएं लाद कर उन्हें सलाखों के पीछे पहुंचा दिया जाता है। एकाध दोषी पुलिस वाले के निलंबन को नजीर बनाने के बजाय समूचे पुलिस तंत्र में गहरे जड़ें जमाए बैठी बेरहमी के मूलोच्छेदन की जरूरत है।
एक लोकतांत्रिक देश में पुलिस को जनता का रक्षक माना जाता है लेकिन हमारे यहां अक्सर उसकी भूमिका इसके अनुरूप नहीं होती। कुछ दशक पूर्व उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ न्यायमूर्ति ने तो पुलिस को अपराधियों का संगठित गिरोह तक कह डाला था। कानून की धौंस दिखा कर गरीब रेहड़ी-पटरी वालों से हफ्ता वसूलने, रंगदारी मांगने, निर्दोषों से मारपीट, झूठे मामलों में फंसाने की धमकी देकर पैसा ऐंठने, हिरासत में यातनाएं, फर्जी मुठभेड़ों में मार डालने और बलात्कार तक कोई जुर्म ऐसा नहीं रह गया है जो पुलिस के गुनाहों की सूची में दर्ज न हो। अपराधियों से निपटने के लिए बनी पुलिस खुद अपराधों में लिप्त पाई जाए, इससे खौफनाक विद्रूप भला क्या हो सकता है! पुलिस की ऐसी छवि के कारण ही आम लोग उसके पास फरियाद लेकर जाने में डरते हैं। कानून के ये रक्षक अक्सर अपने को कानून से ऊपर समझते हैं। पुलिस की ऐसी छवि को सुधारने के लिए अनेक समितियां गठित की गर्इं, पुलिस सुधार आयोग भी बना, मगर उनकी सिफारिशों पर अमल के गंभीर प्रयासों का सर्वथा अभाव रहा है। पुलिस की बर्बरता के लिए अंग्रेजों के बनाए 1861 के पुलिस अधिनियम को खूब कोसा जाता है। सवाल है कि आखिर आजादी के इतने दशक बाद भी हम उसे क्यों ढो रहे हैं? क्या इससे नहीं लगता कि हमारे समूचे तंत्र में पुलिस सुधार के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति का सर्वथा अभाव है। यही स्थिति रही तो पुलिस से मानवीय सलूक की उम्मीद करना दिवास्वप्न ही बना रहेगा।