एक फिर उत्तर प्रदेश सरकार को लोकायुक्त का पद लंबे समय से खाली रखने के कारण सर्वोच्च अदालत की फटकार सुननी पड़ी। राज्य सरकार का रवैया लोकायुक्त की नियुक्ति के प्रति उसकी अनिच्छा को ही दर्शाता है। यों कर्नाटक और उत्तराखंड को छोड़ दें, तो बाकी राज्यों में जहां लोकायुक्त हैं उन्हें पर्याप्त अधिकार और संसाधन हासिल नहीं हैं। जांच और आगे की कार्रवाई के लिए उन्हें संबंधित राज्य सरकार का मुंह जोहना पड़ता है। फिर भी, लोकायुक्त का भय तमाम राज्य सरकारों को लगा रहता है। इसलिए वे इस पद पर अपनी पसंद के व्यक्ति की नियुक्ति चाहती हैं, अगर वैसा उम्मीदवार न मिले तो नियुक्ति में टालमटोल करती रहती हैं। पंजाब में ऐसा कई बार हुआ।

गुजरात में लोकायुक्त का पद एक समय राज्यपाल से सहमति न बन पाने के बहाने सात साल तक खाली रहा। उत्तर प्रदेश का उदाहरण एक मायने में और भी विचित्र है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बावजूद राज्य सरकार नए लोकायुक्त की नियुक्ति टालती रही है। गौरतलब है कि राज्य के संशोधित लोकायुक्त कानून को चुनौती देने वाली याचिका पर पिछले साल अप्रैल में सुनवाई करते हुए अदालत ने इस कानून की वैधानिकता को तो मान लिया, पर साथ ही निर्देश दिया था कि लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा के स्थान पर अधिकतम छह माह में नए लोकायुक्त का चयन किया जाए।

लेकिन इस निर्देश पर अमल नहीं हुआ। आखिरकार अदालत को जुलाई में एक अवमानना याचिका का संज्ञान लेना पड़ा, जिसमें शिकायत की गई थी कि राज्य सरकार ने अदालत के पिछले साल अप्रैल में दिए गए निर्देश का पालन नहीं किया। अदालत ने महीने भर के भीतर इस संबंध में कदम उठाने को कहा। मगर राज्य सरकार की बेहोशी तोड़ने के लिए एक नई अवमानना याचिका की जरूरत पड़ी, जिस पर सुनवाई करते हुए अदालत ने बुधवार तक नए लोकायुक्त की नियुक्ति का आदेश दिया है।

उत्तर प्रदेश में पिछले लोकायुक्त की जांच के चलते कई राजनीतिकों को जेल जाना पड़ा, जो बसपा सरकार में मंत्री रह चुके थे। शायद इस अनुभव को देखते हुए नए लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर सपा सरकार हिचकती रही होगी। राज्य के मंत्रिमंडल और सपा के विधायक दल में किनके ऊपर कैसे आरोप हैं, इसके तथ्य अनेक बार आ चुके हैं। अगर अगले विधानसभा चुनाव से पहले कुछ मामलों में जांच शुरू होकर किसी अहम मुकाम पर पहुंच गई तो उससे काफी सियासी नुकसान हो सकता है।

पर अब सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश ने राज्य सरकार के सामने बहानेबाजी की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी है। अलबत्ता उत्तर प्रदेश सरकार का रवैया इस मामले में टालमटोल का अकेला मामला नहीं है। दूसरे राज्यों से भी ऐसे उदाहरण गिनाए जा सकते हैं। यही नहीं, केंद्र का हाल देखिए। लोकपाल कानून यूपीए सरकार के समय ही बन गया था। उस समय भारतीय जनता पार्टी लोकपाल की जरूरत बताने और सख्त लोकपाल के पक्ष में होने की दुहाई देते नहीं थकती थी।