इस महामारी के वक्त तमाम दुश्वारियां झेलते हुए भी लोग जिस हौसले और उम्मीद के साथ जीवन जीने का प्रयास करते दिखते हैं, वह मनुष्य के संघर्ष की नई मिसाल है। कोरोना संक्रमण पर काबू पाने के लिए बस और रेलों का संचालन सीमित रखा गया है, जिसके चलते लोगों का आवागमन पहले की तरह सुचारु नहीं रह गया है। बंदी हटने के बाद कारोबारी गतिविधियां शुरू हो गई हैं, प्रतियोगी और दूसरी परीक्षाएं भी होने लगी हैं। ऐसे में बहुत सारे लोगों को दिक्कतें पेश आ रही हैं।
फिर भी ऐसे अनेक लोग हैं, जो इन परेशानियों को पार कर जिंदगी की रफ्तार को रुकने नहीं दे रहे। इसका एक उदाहरण झारखंड का वह युवक भी है, जोे शिक्षण डिप्लोमा की परीक्षा दिलाने अपनी गर्भवती पत्नी को स्कूटर पर बिठा कर करीब बारह सौ किलोमीटर दूर ग्वालियर लेकर गया। रास्ते में धूप और बारिश के अलावा गर्भवती की सेहत को भी खतरा था, पर उसने हौसला नहीं छोड़ा। यह प्रश्न अपनी जगह है कि इस असुविधा भरे समय में तमाम विरोधों और चिंताओें के बावजूद परीक्षाएं आयोजित करने वाली एजेंसियां और संगठन अपने फैसले पर अडिग क्यों हैं। पर जिनमें जज्बा और संकल्पशक्ति है, वे अपने मकसद को पाने का प्रयास कर ही रहे हैं।
झारखंड का यह युवक और उसकी पत्नी अकेला उदाहरण नहीं हैं, जो तमाम असुविधाओं और खतरों को धता बताते हुए अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहे हैं। जिस वक्त देश में पूर्णबंदी थी, कोई भी वाहन नहीं चल रहा था, तब भी अनेक लोगों ने अपनी कर्तव्यनिष्ठा को ऊपर रखा और असुविधाओं की परवाह नहीं की। ऐसा ही एक सिपाही उत्तर प्रदेश के अपने गांव से पैदल ही चल कर ड्यूटी निभाने मध्यप्रदेश पहुंचा था। इन दिनों ऐसे भी अनेक उदाहरण सामने आ रहे हैं, जब बाढ़ की वजह से वाहनों का चलना बंद है, पर लोग अपने जरूरी कामकाज निपटा रहे हैं।
कुछ लोगों के सामने बेशक मजबूरियां भी हैं, जिन्हें प्रसव के लिए किसी महिला को चारपाई पर ढोकर अस्पताल पहुंचाना पड़ रहा है। कहीं सुरक्षाबल के जवान भी ऐसे कामों में सहयोग करते देखे जा रहे हैं। मगर ये सारे उदाहरण इस बात की गवाही हैं कि जब भी मनुष्य पर संकट आता है, उसके सामने चुनौतियां खड़ी होती हैं, तो वह अपने हौसले और परस्पर सहयोग से उन पर विजय पाने का प्रयास करता है।
हालांकि ऐसे उदाहरणों से व्यवस्था की खामियां भी उजागर होती हैं। कागजों पर तो बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं गांव-गांव तक बिजली पहुंचाने, सड़कें बनाने के, मगर हकीकत इसके उलट नजर आती है। कोरोना संक्रमण रोकने के लिए घरों से बाहर निकलने पर पाबंदी लगाई गई, पर उसके बाद क्या स्थितियां पैदा हो सकती हैं, उसका अंदाजा लगाने में व्यवस्था विफल ही साबित हुई।
जीवन को चलते रहना चाहिए, इस तर्क से सभी सहमत होंगे, पर उसे चलाने के लिए जिन पहियों की जरूरत होती है, क्या वे दुरुस्त हैं, यह देखना भी प्रशासन का काम है। झारखंड के युवक को अपने स्कूटर और अपनी हिम्मत पर भरोसा था, इसलिए वह अपनी पत्नी को लेकर परीक्षा केंद्र तक पहुंच गया, पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि बहुत सारे लोगों ने परीक्षा में न बैठने का ही फैसला किया होगा। इस तरह उनका एक साल बर्बाद गया। इसलिए लोगों के हौसले को निस्संदेह बढ़ाने की जरूरत है, पर व्यवस्थागत कमियों को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।