लेकिन इस अधिकार के साथ इसकी गरिमा का खयाल रखने की जिम्मेदारी भी लोगों की ही है। अगर इस सुविधा को बेलगाम बोली और बर्ताव की छूट के तौर पर देखा जाएगा तो इस पर सवाल उठेंगे। खासतौर पर किसी जिम्मेदार पद पर बैठ कर कोई जनप्रतिनिधि इस संवैधानिक अधिकार की गरिमा कायम रखने के बजाय बोली में मर्यादा का खयाल रखना जरूरी न समझे, तो यह एक चिंताजनक स्थिति है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में अरविंद केजरीवाल के पास यहां के शासन को संचालित करने के लिए पद से जुड़े कई अधिकार हैं। लेकिन जनप्रतिनिधि और विशेष रूप से मुख्यमंत्री होने के नाते अपने पद और उसकी मर्यादा को बनाए रखना भी उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। इसके उलट हालत यह है कि अगर उनकी सरकार में कामकाज से जुड़ी प्रक्रिया से संबंधित कोई अड़चन खड़ी होती है तो इस पर विचार करने के बजाय वे नाहक बिफर जाते हैं। जबकि उनके पद और कद को देखते हुए यह स्थिति खुद उनकी ही गरिमा को कठघरे में खड़ा करती है!

गौरतलब है कि सरकारी कामकाज में उपराज्यपाल की ओर से कथित हस्तक्षेप के आरोप के साथ अरविंद केजरीवाल न सिर्फ उनके कार्यालय तक निकाले गए जुलूस में खुद शामिल हुए, बल्कि इससे बाद उन्होंने कुछ ऐसी भाषा में बात की, जिसे मर्यादा के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। उन्होंने उपराज्यपाल पर ‘सामंती मानसिकता से ग्रस्त’ होने का आरोप तो लगाया, लेकिन खुद ही जिन शब्दों का प्रयोग किया, वह उनकी मंशा को कठघरे में खड़ा करता है।

खबरों के मुताबिक, कुछ शिक्षकों को प्रशिक्षण के लिए विदेश भेजने के फैसले से उपराज्यपाल की असहमति के बाद विधानसभा में केजरीवाल ने कहा कि ‘कौन हैं एलजी… कहां से आए… वे हमारे सिर पर सवार हैं… बेगानी शादी में अब्दुल्ला की तरह…!’ सवाल है कि वे जिस पद पर हैं और उससे जिस तरह की जवाबदेही जुड़ी है, क्या ऐसी भाषा में बात करना उनके लिए उचित है? अगर सरकारी कामकाज में उपराज्यपाल की आपत्ति में नियम-कायदे से संबंधित कोई गड़बड़ी है, तो इसके समाधान के लिए शासन के ढांचे में कोई प्रक्रिया निर्धारित होगी। मगर इसके तहत मुख्यमंत्री पद की मर्यादा का निर्वाह करने के बजाय वे अशिष्ट लहजे में अपनी असहमति दर्ज करते हैं, तो इसे कैसे देखा जाएगा?

सही है कि दिल्ली के मतदाताओं ने उन्हें चुन कर भेजा है। लेकिन तथ्य यह भी है कि जनता ने उनके पद के साथ संवैधानिक व्यवस्था के तहत कुछ जवाबदेही निभाने के लिए भी चुना है, जिसमें लोकतंत्र की गरिमा और मर्यादा कायम रखना सबसे ऊपर है। दिल्ली के शासन-प्रशासन और सरकार के ढांचे में उपराज्यपाल पद की एक भूमिका और उसके मुताबिक जिम्मेदारियां तय की गई हैं।

दिल्ली सरकार के किसी फैसले को उपराज्यपाल की सहमति से गुजरना एक निर्धारित प्रक्रिया होगी। अगर इसमें किसी तरह की अड़चन है तो इस पर विचार या इसका हल भी व्यवस्था के दायरे में ही होगा। इसके बजाय मुख्यमंत्री पद पर होते हुए भी उपराज्यपाल के लिए इस तरह की भाषा को लोकतंत्र के हक में कतई नहीं कहा जा सकता। सामान्य जनजीवन में भी सभी लोगों से सभ्य और शिष्ट व्यवहार और बोली की अपेक्षा होती है। इसी तरह सत्ता के ढांचे में पद की गरिमा के अनुकूल बर्ताव और बोली की मर्यादा से ही लोकतंत्र बचेगा और मजबूत होगा।