हमारे यहां शिक्षा का स्वरूप काफी कुछ रोजगार आधारित बन गया है। यही मैकाले की शिक्षा नीति का मुख्य उद्देश्य था। सरकार और व्यवस्था के काम लायक लोगों को तैयार करना। वही शिक्षा पद्धति आजादी के बाद भी बनी रही। बल्कि शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाने पर जोर और बढ़ गया। इसमें कोई बुराई नहीं। जिस शिक्षा से आजीविका का प्रबंध न हो सके, उस पर प्रश्नचिह्न स्वाभाविक है।

मगर हकीकत यह है कि रोजगार के बहुत सारे अवसर तकनीकी ज्ञान पर आधारित होते गए हैं। इस तरह पाठ्यक्रमों में उसी प्रकार के पाठ शामिल किए जाते हैं, जो आगे चल कर विभिन्न अवसरों पर विद्यार्थियों के काम आ सकें। फिर, जिस तरह शिक्षा को लेकर पूरी दुनिया में प्रयोग हो रहे हैं, उसमें कौशल विकास के नाम पर ज्यादातर औद्योगिक जरूरतों को ध्यान में रखा जाता है।

खासकर उच्च शिक्षा में उन्हीं पाठ्यक्रमों में अधिक भीड़ देखी जाती है, जिन्हें पढ़ कर विद्यार्थियों को ऊंचे वेतन वाली नौकरी पाने की संभावना अधिक रहती है। इस तरह धीरे-धीरे पारंपरिक भारतीय ज्ञान परंपरा लगभग लुप्त होने को है। अच्छी बात है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उस ज्ञान परंपरा को सहेजने की पहल की है।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी ने देश के सभी विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों को निर्देश जारी किया है कि वे अपने पाठ्यक्रमों में भारतीय पारंपरिक ज्ञान को समाहित करने का प्रयास करें। खासकर स्नातक स्तर पर ऐसे पाठ जरूर शामिल किए जाएं। संभव है, कुछ लोगों को यह निर्देश नागवार गुजर सकता है, मगर इस जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज जिस तरह ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में परस्पर आवाजाही बढ़ी है और पुरानी सभ्यता और संस्कृतियों से बहुत कुछ लेने का प्रयास किया जा रहा है, उसमें भारतीय ज्ञान परंपरा को पाठ्यक्रमों में समाहित करने से परहेज क्यों होना चाहिए।

चिकित्सा, खगोल विज्ञान, स्थापत्य, रसायन विज्ञान आदि क्षेत्रों में भारत की ज्ञान परंपरा आज भी दुनिया के लिए आकर्षण का विषय है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजंसी अगर प्राचीन भारतीय खगोल विज्ञान की स्थापनाओं के आधार पर अंतरिक्ष के रहस्यों को सुलझाने का प्रयास कर रहा है, तो हमें उसे पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने से क्यों गुरेज होना चाहिए। अगर योग विज्ञान को दुनिया भर के चिकित्सा विज्ञान ने एक कारगर पद्धति मान लिया है, तो उससे जुड़े पाठ हमें क्यों नहीं पढ़ने चाहिए।

स्थापत्य, आयुर्वेद, भारतीय दर्शन, दस्तकारी, कृषि, पशुपालन, बागवानी आदि के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसी अनेक प्राचीन ज्ञान परंपराएं बिखरी पड़ी हैं, जो रोजगार की दृष्टि से भी उपयोगी हो सकती हैं। सबसे बड़ी बात कि इससे समाज और जीवन के आधारभूत तत्त्व मजबूत होंगे। जीवन और समाज में इसलिए बहुत सारी विसंगतियां पैदा हो गई हैं कि हमने अपने परिवेश से अलग सभ्यता और संस्कृति को अपनाने और उसके मुताबिक जीने का प्रयास किया है।

इससे पर्यावरण को भी बहुत नुकसान पहुंचा है। व्यवस्था और औद्योगिक क्षेत्रों के लायक योग्यता हासिल कर लेना भारत जैसी विशाल आबादी वाले देश में संभव नहीं है। इसलिए आजीविका के पारंपरिक तरीकों की तरफ लौटना ही पड़ेगा। नई शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान परंपरा को सहेजने पर बल है, अब उच्च शिक्षा में भी इस तरह का पाठ्यक्रम बनेगा, तो निस्संदेह विद्यार्थियों को अपनी ज्ञान परंपरा को समझने और उसे नए ढंग से उपयोग करने में मदद मिलेगी। मगर जब भी शिक्षा में इस तरह के बदलाव होते हैं, तो उनके पीछे कोई खास मकसद छिपा होता है। ऐसा कोई मकसद इसमें नहीं होना चाहिए।