सुप्रीम कोर्ट ने चालीस-चालीस मंजिला दो इमारतों को गिराने के मामले में सुपरटेक को कोई राहत नहीं देकर अपने कड़े रुख को साफ कर दिया है। सर्वोच्च अदालत ने तीस नवंबर तक इन दोनों इमारतों को गिराने का आदेश दे रखा है। नोएडा प्राधिकरण इसकी तैयारी भी कर रहा है। लेकिन भवन निर्माता ने एक बार फिर अदालत का दरवाजा खटखटाया और इमारतों को गिराने के आदेश में संशोधन कर राहत मांगी। पर अदालत ने उसकी याचिका खारिज कर दी। इससे यह साफ हो गया कि भवन निर्माताओं की मनमानी पर लगाम लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट सख्त फैसले लेने और उन्हें लागू करने में कोई रियायत नहीं बरतने वाला। उसकी नजर में उपभोक्ताओं का हित सर्वोपरि है। अब यह तो साफ है कि सुपरटेक ने जो अवैध निर्माण किया है, वह सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय की गई अवधि के भीतर गिरा दिया जाएगा। अदालत का ऐसी सख्ती उन दूसरे भवन निर्माताओं के लिए भी बड़ा सबक है जो प्राधिकरणों की मेहरबानी से नियम-कानूनों को ताक पर रख कर गैरकानूनी तरीके से इमारतें खड़ी करते रहे हैं और उपभोक्ताओं के साथ छल करते आए हैं।

नोएडा, ग्रेटर नोएडा सहित राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बड़ी संख्या में भवन निर्माण परियोजनाएं चल रही हैं। लेकिन आज भी लाखों उपभोक्ताओं को घरों का कब्जा नहीं मिला है। ऐसी परियोजनाओं की तादाद भी काफी है जो अधूरी पड़ी हैं। मामला इसलिए भी गंभीर है कि नामी-गिरामी भवन निर्माता भी संबंधित प्राधिकरण की मदद से भवन निर्माण के निर्धारित मानकों का उल्लंघन करते हुए ढांचे खड़े करते रहे हैं। सुपरटेक के मामले में तो इलाहाबाद हाई कोर्ट छह साल पहले ही दोनों इमारतों को गिराने का आदेश दे चुका था। पर कंपनी ने कानूनी रास्ते का फायदा उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी। उसे उम्मीद रही होगी कि यहां उसे राहत मिल जाएगी। पर सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए अवैध निर्माण गिराने का आदेश दिया। यह फैसला इसलिए भी सख्ती से लागू होना जरूरी है ताकि भवन निर्माता अवैध निर्माण करने से डरें। इस मामले में अदालत ने भवन निर्माता के अलावा संबंधित प्राधिकरण पर भी नकेल कसी और इसी का नतीजा है कि आज इस मामले में विशेष जांच दल की जांच में छब्बीस अधिकारी दोषी पाए गए हैं। देखने की बात अब यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार इनके खिलाफ कितनी सख्त कार्रवाई करती है जो एक मिसाल बने।

पूरा पैसा दे देने के बावजूद समय पर घर नहीं मिलने और भवन निर्माता द्वारा धोखाधड़ी किए जाने जैसे मामलों को लेकर अदालतों में मुकदमे चल रहे हैं। लोग एक छत के लिए जीवन भर की गाढ़ी कमाई लगा देते हैं। ऐसे में अगर सालों तक घर मिलने का इंतजार करना पड़ जाए तो कितनी मानसिक पीड़ा होती होगी, इसका अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है। अगर प्राधिकरण जिम्मेदार निकाय की तरह काम करें तो शायद उपभोक्ताओं को इतना परेशान न होना पड़े और भवन निर्माताओं में भी खौफ रहे। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि प्राधिकरण ही भ्रष्टाचार के गढ़ में तब्दील हो गए हैं। उपभोक्ताओं के हितों के ध्यान में रखते हुए अब सर्वोच्च अदालत ने भवन निर्माता और खरीददार के बीच एक पुख्ता अनुबंध पत्र बनाने पर भी जोर दिया है। इससे भी उपभोक्ताओं को धोखाधड़ी से बचाया जा सकेगा। जरूरत इस बात की है कि सरकारी तंत्र सतर्क होकर काम करे ताकि भ्रष्ट अधिकारियों और भवन निर्माताओं के गठजोड़ पर लगाम लगे। तभी उपभोक्ताओं के हितों की भी सुरक्षा हो पाएगी।