कारागारों में मानवीय वातावरण बनाने की सिफारिश लंबे समय से की जाती रही है। इसके मद्देनजर सुधार के कुछ उपाय भी आजमाए जा चुके हैं। जेल नियमावली को मानवीय बनाने का प्रयास किया गया। मगर हकीकत यह है कि जेलों में मिलने वाली यातनाओं, जेल कर्मियों की लापरवाही, बाहरी तनावों और वंदियों के परस्पर संघर्ष की वजह से हर साल सैकड़ों कैदी अपनी जान गंवा देते हैं।
जेलों में सुधार संबंधी सिफारिशें देने के मकसद से पांच साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अगुआई में तीन सदस्यों की समिति गठित की थी। उस समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 2017 से 2021 के बीच जेलों में 817 अप्राकृतिक मौत हुईं, जिनमें से सबसे अधिक मौत की वजह आत्महत्या थी। इस दौरान 660 लोगों ने खुदकुशी कर ली, 41 की हत्या कर दी गई, जबकि 46 आकस्मिक मौत थीं।
सात कैदियों की मौत बाहरी तत्त्वों के हमले और जेल कर्मियों की लापरवाही या ज्यादती के कारण हुई। जेलों में खुदकुशी की सबसे अधिक, एक सौ एक, घटनाएं उत्तर प्रदेश में दर्ज हुईं। उसके बाद पंजाब और पश्चिम बंगाल में क्रमश: तिरसठ और साठ कैदियों ने आत्महत्या की। जो प्राकृतिक मौतें हुईं उनमें वृद्धावस्था, बीमारी जैसे कारण थे। वृद्धावस्था के कारण 462 और बीमारी के कारण 7,736 कैदियों की मौत हुई।
समिति ने अपनी सिफारिशों में जेलों में कुछ महत्त्वपूर्ण बदलाव के सुझाव देते हुए चिंता जताई है कि हिरासत में कैदियों को यातना और उनकी मौत नागरिकों के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन और मानवीय गरिमा का अपमान है। हालांकि जेलों की दुर्दशा पर अनेक बार चिंता जताई जा चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय खुद कई बार कह चुका है कि जेलों में भीड़भाड़ कम करने के लिए विचाराधीन कैदियों के मामलों की त्वरित सुनवाई की जानी चाहिए।
ऐसे कैदियों की पहचान कर उन्हें शीघ्र रिहा किया जाना चाहिए जो अपने ऊपर लगे आरोप में तय अधिकतम सजा से अधिक समय जेल में बिता चुके हों। मगर जांच, गवाही, सुनवाई आदि में देरी की वजह से मामूली जुर्म के आरोप में भी बहुत सारे लोग वर्षों विचाराधीन कैदी के रूप में कारागार में बंद रहते हैं। इससे जेलों पर दबाव लगातार बढ़ता गया है।
ज्यादातर जेलों में क्षमता से कई गुना अधिक कैदी रखे गए हैं। इस तरह न तो उन्हें बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हो पाती हैं, न उन पर समुचित ध्यान दिया जा पाता है। सुरक्षा में भी इसी वजह से चूक होती है।
जेलों का मकसद कैदियों में सुधार की संभावना पैदा करना होता है। बेशक जाने या अनजाने किए किसी जुर्म की वजह से उन्हें जेल में डाल दिया गया हो, मगर वहां भी उन्हें मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार है। यह बात जेल प्रशासन शायद ही कभी ध्यान रखता है। जेलों में दी जाने वाली यातनाएं, उन्हें रहने-खाने, चिकित्सा संबंधी सुविधाओं में घोर उपेक्षा जगजाहिर है। उत्तर प्रदेश इस मामले में सदा से कुख्यात रहा है।
हिरासत में होने वाली मौतों के सबसे अधिक मामले वहीं दर्ज होते हैं। मगर सर्वोच्च न्यायालय की बार-बार फटकार और जेलों में सुधार की जरूरत रेखांकित किए जाने के बावजूद जेल प्रशासन के रवैए में कोई बदलाव नजर नहीं आता। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समिति ने अपनी सिफारिशों में जेल कर्मियों को विशेष प्रशिक्षण की जरूरत रेखांकित की है। यह कितना और कैसे संभव होगा, देखने की बात है।