देश की राजनीति को भ्रष्टाचार, अपराधीकरण और धनबल से मुक्त करने के लिए आमतौर पर सभी राजनीतिक दल आवाज उठाते हैं, चुनावों के दौरान अन्य दलों पर इसे बढ़ावा देने का आरोप लगाया जाता है। मगर हालत यह है कि शायद ही ऐसा कोई दल है, जो विधानसभा या लोकसभा के लिए उम्मीदवार तय करते हुए इस बात का खयाल रखना जरूरी समझे कि उससे राजनीति के अपराधीकरण, भ्रष्टाचार और धनबल को कितना बढ़ावा मिलेगा।

आए दिन की रपटों में यह बताया जाता रहा है कि तमाम दावों के बावजूद राजनीतिक दलों ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले या करोड़पति लोगों को टिकट देने से कभी कोई परहेज नहीं किया, बल्कि ऐसे लोगों को काफी महत्त्व दिया, जिनके पास धनबल हो। हाल ही हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों की घोषणा के बाद आई एक रपट के मुताबिक, नई विधानसभा में विधायक बनने वालों में छियानबे फीसद करोड़पति हैं।

कई जनप्रतिनिधियों पर गंभीर आरोप

इसके अलावा, उनमें तेरह फीसद विधायकों का आपराधिक अतीत है और कई पर गंभीर अपराध के मुकदमे चल रहे हैं। यह स्थिति तब है, जब पिछले कई वर्षों से देश भर में लगातार इसे लेकर राजनेता चिंता जताते दिखते और अपनी पार्टी के इस रोग से मुक्त होने का दावा करते हैं।

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सवाल है कि फिर चुनाव में किसी राजनीतिक पार्टी के टिकट पर जीत कर जनप्रतिनिधि बनने वाले वे कौन लोग हैं और उन्हें उम्मीदवार बनाते समय संबंधित पार्टी को उनकी पृष्ठभूमि पर गौर करना और उनसे बचना जरूरी क्यों नहीं लगा? ऐसा क्यों होता है कि सभी बड़े दल अपने प्रतिद्वंद्वियों पर राजनीति में धनबल, आपराधिक पृष्ठभूमि या भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करने वालों को बढ़ावा देने का मुद्दा उठाते हैं और उसी आधार पर जनता किसी खास पार्टी को अपना समर्थन भी देती है।

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मगर वे खुद दागियों को टिकट दे देते हैं। ईमानदारी और शुचिता के बजाय वैसे लोगों को तरजीह दिया जाता है, जिनके पास अथाह धन हो। ऐसे में आर्थिक रूप से साधारण हैसियत वाले ईमानदार लोग चुनाव में हिस्सा भी नहीं ले पाते। सवाल है कि राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं के ऐसे दोहरे रवैये के रहते राजनीति और चुनावों में हिस्सेदारी को कितना लोकतांत्रिक बनाया जा सकेगा!