इंटरनेट आधारित उपकरणों की लत को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है। खासकर स्मार्ट फोन और सोशल मीडिया मंचों का चलन बढ़ने के बाद किशोरों और युवाओं में इसकी लत की वजह से अनेक शारीरिक, मानसिक विकृतियां चिह्नित की गई हैं। इन विकृतियों के उपचार के लिए दुनिया भर के विशेष अस्पतालों में अलग से विभाग तक खोल दिए गए हैं।

स्कूल-कालेजों में बच्चों को इस लत से मुक्ति के नुस्खे समझाए-बताए जाते हैं। मगर चिंता की बात है कि कम होने के बजाय सोशल मीडिया मंचों की लत भयावह रूप लेती जा रही है। एक नए अध्ययन में बताया गया है कि बहुत सारे युवा सोशल मीडिया पर अपने किसी चित्र या टिप्पणी पर मिली पसंद से धूम्रपान जैसा आनंद महसूस करते हैं।

जाहिर है, इसीलिए वे लगातार सोशल मीडिया पर बने रहते हैं। पहले के अध्ययनों से भी जाहिर है कि इससे युवाओं, किशोरों में दिमाग के भीतर पैदा होने वाले आनंद के रसायन का प्रवाह बढ़ जाता है, जिससे उन्हें सुख मिलता है। मगर इस सुख के चलते उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर पड़ता है, युवा इसका अनुमान नहीं लगा पाते।

सोशल मीडिया के अब अनेक मंच हैं, जहां युवा और किशोर अपनी पसंद की गतिविधियां कर सकते हैं। ज्यादातर युवा अपनी तस्वीरें डाल कर अपने मित्रों की सराहना पाने की कोशिश करते हैं। उसमें से कई तस्वीरों के लिए युवा खतरनाक जगहों और जोखिम भरी स्थितियों में भी खुद को डालने से नहीं रोक पाते।

इससे जाहिर है कि उनमें एक प्रकार का ऐसा नशा पैदा हो जाता है कि वे सही और गलत में फर्क करने का विवेक खो बैठते हैं। लगातार स्मार्ट फोन पर गेम खेलने, सोशल मीडिया पर बिताने आदि के चलते युवाओं की स्वाभाविक आदतों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उनकी नींद कम हो जाती है। देर रात तक जागते और सुबह देर तक सोते हैं।

किताबें पढ़ने की आदत का बहुत तेजी से खत्म हो रही है। जाहिर है, इससे जरूरी स्कूली पाठ्यक्रम का अध्ययन बाधित होता और कई तरह की व्यवहारगत समस्याएं पैदा होती हैं। चिड़चिड़ापन, अकेलापन, अवसाद, हिंसक वृत्ति, असंवेदनशीलता, समाज से विच्छिन्नता आदि जैसे मानसिक विकार अब युवाओं में आम हो चले हैं। इससे पार पाने के अनेक उपाय किए जा रहे हैं, मगर समस्या यह है कि जब तक युवाओं को खुद इस बात का अहसास न हो और वे इस लत से मुक्ति पाने की कोशिश न करें, तब तक कोई भी उपाय कारगर साबित नहीं हो पाता।

आमतौर पर बच्चों को अनुशासित करने की जिम्मेदारी माता-पिता की समझी जाती है। हर माता-पिता चूंकि सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों से वाकिफ है, अपने बच्चों को इससे दूर रखने का प्रयास करता भी है। मगर चीजें अब इस कदर उलझ चुकी हैं कि अभिभावक भी इसके आगे हथियार डाल चुके हैं। स्कूलों की पढ़ाई-लिखाई, अनेक प्रतियोगी परीक्षाओं की सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध है।

सूचना का सारा संजाल अब स्मार्ट फोन की तरफ केंद्रित होता जा रहा है। भुगतान, खरीदारी, मनोरंजन की सामग्री भी वहीं मौजूद है। इसलिए अभिभावकों के लिए यह निगरानी रख पाना मुश्किल है कि उनका बच्चा कब क्या देख या पढ़ रहा है। ऐसे में सरकार और उन प्रौद्योगिकी कंपनियों से ही अपेक्षा की जाती है कि युवाओं को इस लत से मुक्ति दिलाने का कोई तकनीकी संसाधन विकसित करें।