गुरुवार को हुई कुछ क्षेत्रीय दलों के नेताओं की बैठक के बाद देश की राजनीति में एक नए मोर्चे के उदय की संभावना जताई जाने लगी है। भाजपा और कांग्रेस से अलग राष्ट्रीय स्तर पर जब भी कोई गठबंधन बना है, नाम कुछ भी रहा हो, व्यवहार में उसे तीसरा मोर्चा ही कहा गया। तीसरे मोर्चे की पहल करने में वाम दलों की हमेशा सक्रिय भूमिका रही। पर ताजा बैठक की खास बात यह है कि इसमें वामपंथी शामिल नहीं थे। मुलायम सिंह, शरद यादव, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, एचडी देवगौड़ा ने इस बैठक में शिरकत की। ये नेता कभी जनता दल में साथ थे, इसलिए इनकी वैचारिक पृष्ठभूमि समान रही है।

इनका असर अपने-अपने राज्य तक सीमित है, यानी अपने प्रभाव वाले राज्य से बाहर इनके राजनीतिक हित आड़े नहीं आते। इसलिए गठबंधन बनने में कोई व्यावहारिक अड़चन नहीं है। अलबत्ता लालू प्रसाद और नीतीश कुमार, दोनों का प्रभाव-क्षेत्र बिहार है, ‘जनता परिवार’ बिखरने के बाद दोनों एक दशक तक एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी रहे। पर कुछ समय से वे साथ-साथ हैं और इस मेल-मिलाप ने अगस्त में राज्य की दस सीटों पर हुए उपचुनाव में सकारात्मक नतीजे दिए। दस में से भाजपा को चार सीटें ही हासिल हो सकीं। लालू और नीतीश साथ आए, तो इसका सबसे बड़ा कारण भाजपा का भय था। भाजपा ने उनके राज्य में लोकसभा चुनाव में उन्हें किनारे कर दिया था। अब मुलायम सिंह और देवगौड़ा को भी संभवत: उसी वजह से एक धुरी बनाने की जरूरत महसूस हुुई होगी।

दरअसल, लोकसभा चुनावों और फिर महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों के बाद भाजपा की बढ़ी हुई ताकत ने सभी क्षेत्रीय दलों को चिंतित कर दिया है। नए मोर्चे की संभावना का दूसरा प्रमुख आधार यह है कि डेढ़ दशक से भले अधिकतर क्षेत्रीय दल राजग और यूपीए में विभाजित रहे हों, पर अब कांग्रेस बुरी तरह कमजोर हो चुकी है और किसी नए गठबंधन का केंद्र बनने का माद्दा नहीं रखती। इसलिए यह हैरत की बात नहीं होगी कि देर-सबेर कुछ दूसरे दल भी नया मोर्चा बनाने की कवायद में शामिल हों। अगर वामपंथी इस खेमे में नहीं होंगे, तो ममता बनर्जी इससे जुड़ने के बारे में सोच सकती हैं। नवीन पटनायक के बारे में भी यह संभावना जताई जा सकती है। पर फिलहाल किसी मोर्चे का एलान नहीं हुआ है। बैठक में शामिल रहे नेताओं ने संसद में साझा रणनीति अख्तियार करने की बात जरूर कही है। लोकसभा में इन दलों के कुल पंद्रह सदस्य ही हैं, पर राज्यसभा में उनकी सम्मिलित सदस्य-संख्या पच्चीस है, जहां भाजपा को बहुमत हासिल नहीं है। राजीव गांधी की सरकार को लोकसभा में मोदी सरकार से भी ज्यादा बहुमत हासिल था। तब भी राज्यसभा विपक्ष के अंकुश का मंच थी। लेकिन अगर संबंधित दलों के सांसद चाहें तो लोकसभा को भी अपनी बहसों से गरमा सकते हैं।

लेकिन संसद के बाहर भी सरकार के जन-विरोधी फैसलों का एकजुट विरोध कैसे किया जाए इस बारे में इन दलों को सोचना होगा। केवल चुनाव की चिंता में बनाई जाने वाली रणनीति ज्यादा दूर तक नहीं जा सकती। दरअसल, विपक्ष की राजनीति में जो शून्य उभरा है, उसे भरे बिना भाजपा की तरफ से आ रही चुनौती का मुकाबला नहीं किया जा सकता। सांप्रदायिकता-विरोध और आर्थिक नीतियों को जनपक्षधर बनाने के संघर्ष के जरिए ही इस शून्य को भरा जा सकता है। हो सकता है तब वामपंथी भी, साथ नहीं, तो आसपास खड़े दिखें। इसलिए अभी इन पार्टियों के लिए सबसे बड़ा तकाजा राष्ट्रीय विकल्प की दावेदारी का नहीं, विपक्ष की राजनीति में जान फूंकने का है।