पहले करीब अठारह विपक्षी दलों ने संसद के बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण का बहिष्कार किया था। फिर उन्होंने कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन चलाने की घोषणा की। गणतंत्र दिवस के मौके पर लालकिले की घटना के बाद एक तरफ सरकार शरारती तत्त्वों से निपटने का प्रयास कर रही है, तो दूसरी तरफ तमाम विपक्षी दल सरकार को घेरने में जुटे हैं।
पंजाब और दिल्ली की सरकारों ने लालकिले की घटना के बाद गुमशुदा लोगों की तलाश के लिए वकीलों की टीम और सहायता केंद्र गठित कर दिए हैं। उधर प्रियंका गांधी उस दिन आईटीओ पर ट्रैक्टर पलटने की वजह से मारे गए युवक के परिजनों से मिल कर मातमपुर्सी करने उनके घर पहुंचीं और घोषणा की कि किसानों का आंदोलन और बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा, कांग्रेस उनके साथ खड़ी है। उस घटना के बाद कई विपक्षी दलों के नेता किसान नेताओं का हालचाल लेने गाजीपुर और सिंघू बार्डर पर भी हो आए हैं।
दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाले किसानों की बढ़ती तादाद और उनके आंदोलन की व्यापकता को देखते हुए केंद्र सरकार ने उनके आसपास की जगहों पर कंटीले तारों, पक्की दीवारों और लोहे की कीलों से बाड़बंदी और भारी संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती शुरू कर दी, तो विपक्षी दलों को विरोध जताने का एक और मौका मिल गया। इस तरह लंबे समय से शिथिल पड़ी राजनीतिक पार्टियों को अपनी पक्षधरता साबित करने का मौका हाथ लग गया है।
केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों को जैसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है, तो विपक्षी दलों ने दम भरा है कि वे उन्हें वापस करा कर ही दम लेंगे। हालांकि फिलहाल इस मसले के सुलझने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे। सरकार की चौतरफा आलोचना हो रही है, किसानों के समर्थन में साहित्य और संस्कृति से जुड़े लोग भी उतर आए हैं।
मगर सरकार पर इन सबका कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा। किसान संगठन अपने दम पर कृषि कानूनों को वापस कराना चाहते हैं। शुरू से उन्होंने प्रतिज्ञा ले रखी है कि वे किसी भी राजनीतिक दल का समर्थन नहीं लेंगे। इसलिए जो राजनेता उनसे मिलने भी जाते हैं, उन्हें वे अपना मंच साझा नहीं करने देते। ऐसे में राजनीतिक दलों का कृषि कानूनों का विरोध कितना प्रभावी साबित होगा, देखने की बात है।
यह सही है कि जब भी सत्तापक्ष के विरोध में कोई बड़ा आंदोलन खड़ा होता है, तो उसे जो राजनीतिक दल पहले लपक कर अपने पक्ष में मोड़ लेता है, उसका जनाधार मजबूत हो जाता है। मगर इस आंदोलन का मिजाज कुछ अलग है। कह सकते हैं कि सही अर्थों में यह जनांदोलन है।
मगर विपक्षी दलों का प्रयास रहा है कि वे किसी तरह इसके मंच पर काबिज हो सकें। पर अब तक न तो उनकी कोई हिकमत काम आई है और न सत्तापक्ष के ही किसी आरोप की वजह से इस आंदोलन की पहचान किसी राजनीतिक दल से जुड़ सकी है। इस तरह यह आंदोलन एक तरह से समूचे राजनीतिक नेतृत्व के नकार का भी प्रतीक बन गया है। यही वजह है कि किसान आंदोलन के दिनोंदिन और मजबूत होते जाने से सत्तापक्ष में बेशक कुछ घबराहट दिखाई देती है, पर विपक्षी दलों की लामबंदी की उसे कोई परवाह नजर नहीं आती।