न्यायाधीशों की नियुक्ति में देरी का मामला वर्षों से चिंता का सबब बना हुआ है और इस मसले पर सर्वोच्च न्यायालय समय-समय पर अपनी बेचैनी को जाहिर भी करता रहा है। इस बार शीर्ष अदालत ने सख्त रुख अख्तियार करते हुए कहा है कि वह हर दस-बारह दिन में मामले में सुनवाई करेगा, ताकि इसे जल्द हल किया जा सके।

देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के सैकड़ों पद खाली पड़े हैं। तबादलों और प्रोन्नति की सूची भी लंबी होती जा रही है, लेकिन सरकार के स्तर पर नियुक्ति के मामले में तेजी नहीं दिखाई जा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर हैरानी जताई है कि बीते दस माह में उच्च न्यायालयों में जजों की तैनाती के लिए कालेजियम ने अस्सी नामों की सिफारिश सरकार से की थी, लेकिन अब तक केवल दस नामों को मंजूरी मिली।

सत्तर सिफारिशें लंबित हैं। इनमें से छब्बीस सिफारिशें न्यायाधीशों के स्थानांतरण की हैं, सात दोबारा भेजी गई हैं। नौ कालेजियम को वापस किए बिना लंबित पड़ी हुई हैं। एक संवेदनशील मामला उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति का भी अटका हुआ है। पीठ ने न्यायाधीशों की नियुक्ति में इस देरी के मामले की सुनवाई के दौरान निराशा व्यक्त करते हुए सरकार से कहा कि वे बहुत कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन चूंकि अटार्नी जनरल ने इस मुद्दे पर जवाब देने के लिए कम समय मांगा है, इसलिए वे खुद को रोक रहे हैं। गौरतलब है कि अटार्नी जनरल ने इस मसले पर पीठ से एक सप्ताह का समय मांगा है।

अंदाजा लगाया जा सकता है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में देरी न्याय प्रणाली को किस स्तर तक प्रभावित कर रही होगी। इसी को रेखांकित करते हुए अदालत ने कहा कि जिन अच्छे और प्रतिभावान वकीलों के नाम न्यायाधीश बनाने के लिए अनुशंसित किए गए थे, उनमें से कई पीछे हट गए हैं। जाहिर है, यह चिंताजनक स्थिति है और इस पर सर्वोच्च अदालत का नाराज होना स्वाभाविक है।

जजों की नियुक्ति में हीला-हवाली कोई नई बात नहीं है। नियुक्ति के लिए जांची-परखी कालेजियम प्रणाली होने के बावजूद वर्षों से जिला अदालतों से लेकर उच्च न्यायालयों तक न्यायाधीशों के सैकड़ों पद खाली पड़े हुए हैं। इस मसले पर सरकार और न्यायपालिका के बीच अक्सर टकराव के बिंदु उभरते रहे हैं। केंद्र सरकार द्वारा पिछले साल जारी आंकड़ों के मुताबिक जिला अदालतों में न्यायाधीशों के पांच हजार आठ सौ पचास पद खाली थे। सभी उच्च न्यायालयों में जजों के कुल ग्यारह सौ आठ पद स्वीकृत हैं, जिनमें से तीन सौ तैंतीस खाली थे।

यह स्थिति तब है जब देश में प्रति दस लाख आबादी पर महज बीस न्यायाधीश उपलब्ध हैं। सुप्रीम कोर्ट इस बात पर भी अपनी चिंता जाहिर कर चुका है कि आबादी के लिहाज से न्यायाधीशों की संख्या नहीं बढ़ रही है। न्यायाधीशों की नियुक्ति का मामला सरकार और उच्चतम न्यायालय के बीच टकराव का कारण बनता रहा है।

दरअसल, केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम बनाया था, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका के कामकाज में हस्तक्षेप बताकर 2015 में खारिज कर दिया था। दूसरी ओर, सरकार अक्सर कालेजियम की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाती रही है। जाहिर है, सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच इस तनातनी का खमियाजा आखिर जनता को ही भुगतना पड़ेगा। दोनों संस्थान अपनी जिम्मेदारी और देश की जरूरत को ध्यान में रखकर कदम उठाएं, तो मामला जल्द सुलझ सकता है और टकराव की स्थिति से बचा जा सकता है।