दुनिया भर में तालिबान को कट्टर धार्मिक विचारधारा और प्रतिगामी मूल्यों के वाहक के तौर पर ही जाना जाता है। मगर उम्मीद की जाती थी कि अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होने के बाद उसके भीतर कुछ बदलाव आएगा और वह देश के समग्र विकास की दिशा में सोचेगा। अफसोस कि अब तक ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है, जिससे वहां के लोगों, खासकर महिलाओं में अपने बेहतर जीवन और भविष्य को लेकर कोई उम्मीद जगे। संयुक्त राष्ट्र की एक रपट में बताया गया है कि तालिबान ने सत्ता में आने के बाद कम से कम चौदह लाख लड़कियों को जानबूझ कर माध्यमिक शिक्षा से वंचित कर दिया है। यूनेस्को के मुताबिक, पिछले वर्ष अप्रैल में हुई गणना के बाद इसमें तीन लाख की बढ़ोतरी हुई है।

80 फीसदी लड़कियां शिक्षा के अधिकार से वंचित

अगर इसमें उन लड़कियों की संख्या भी जोड़ ली जाए, जो प्रतिबंध लागू होने से पहले स्कूल नहीं जा रही थीं, तो अब देश में लगभग पच्चीस लाख यानी अस्सी फीसद लड़कियां शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं।

इस तरह, अफगानिस्तान का समाज एक तरह से अधूरे विकास के दौर से गुजर रहा है, जिसमें वहां की महिलाओं की पढ़ाई-लिखाई को धर्म और परंपरा के खिलाफ माना जाता है। हालांकि 2021 में जब तालिबान अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हुआ था, तो उसने कठोर इस्लामी शासन से राहत देने का आश्वासन दिया था। मगर अगले ही वर्ष वहां लड़कियों की शिक्षा पर पाबंदी लगा दी गई, महिलाओं को सरकारी नौकरियों में नहीं जाने दिया गया और उनके अकेले लंबी यात्रा करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया।

ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं है कि वहां की महिलाओं का जीवन कैसा होगा। विचित्र है कि एक ओर तालिबानी शासन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता पाने की इच्छा रखता है, लेकिन दूसरी ओर वहां की महिलाओं को पढ़ाई-लिखाई तक से वंचित रखना अपनी जिम्मेदारी समझता है। तालिबान अपनी महिलाओं को हर दायरे से बाहर रख कर भले अपनी तथाकथित परंपरा को बचा लेने का दावा करे, लेकिन हकीकत यह है कि इस तरह वहां एक अधूरा समाज बनेगा, जिसमें महिलाओं का जीवन दोयम दर्जे का होगा। कोई भी समाज महिलाओं को हाशिये पर रख कर मानवीय होने का दावा नहीं कर सकता।