पिछले कुछ वर्षों में तानाशाह शासकों के खिलाफ विद्रोह और तख्तापलट की कई घटनाएं हो चुकी हैं। श्रीलंका और बांग्लादेश में भी कुशासन के विरुद्ध जनआक्रोश फूटा और सत्ता परिवर्तन हो गया। सीरिया इसका ताजा उदाहरण है, जहां विद्रोही गुटों ने बशर अल-असद का तख्तापलट कर दिया। पिछले ग्यारह दिनों के संघर्ष के बाद विद्रोही गुटों ने सीरिया की राजधानी दमिश्क पर कब्जा कर लिया। हालांकि असद सरकार के दमनकारी रवैये, कुशासन और तानाशाही के खिलाफ लोग काफी समय से नाराज थे।

करीब तेरह वर्ष पहले असद को सत्ता से हटाने की मांग के साथ वहां जनआंदोलन उभरा था। मगर असद उस विद्रोह को दबाने में कामयाब रहे थे। इस बार सीरियाई सेना ने एक तरह से आत्मसमर्पण कर दिया और बिना किसी खून-खराबे के विद्रोही गुट हयात तहरीर अल-शाम यानी एचटीएस ने आसानी से दमिश्क पर कब्जा कर लिया। सीरिया में विद्रोह की चिंगारी तभी फूटी थी, जब कई अरब देशों में तानाशाहों के खिलाफ जनाक्रोश भड़का था, जिसे ‘अरब स्प्रिंग’ कहा जाता है। अब सीरिया में तख्तापलट का बड़ा कारण रूस और ईरान का मदद से हाथ खींच लेना माना जा रहा है।

सीरिया में विद्रोही गुट खुश

हालांकि सीरिया में विद्रोही गुट की कामयाबी पर एक बड़े हिस्से में खुशी जताई जा रही है। भारत ने भी वहां शांतिपूर्ण और समावेशी प्रक्रिया के तहत सत्ता हस्तांतरण की उम्मीद जताई है। पर यह सवाल अपनी जगह है कि क्या वास्तव में सीरिया में लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू हो सकेगी। इसके पहले तानाशाही से मुक्त हुए लीबिया, अफगानिस्तान आदि देशों का उदाहरण सामने है, जहां तख्तापलट के बाद भी स्थितियां बेहतर होने के बजाय बदतर ही होती देखी गई हैं।

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सीरिया में भी विद्रोही गुट की कमान कट्टरपंथियों के हाथ में है, जो अल-कायदा से जुड़े रहे हैं। इसके अलावा, वहां कई देशों और अलगाववादियों के अपने स्वार्थ हैं। ईरान और रूस सीरिया के साथ इसलिए बने हुए थे कि सीरिया रणनीतिक रूप से मध्यपूर्व का एक महत्त्वपूर्ण देश है। ईरान को हमास और हिजबुल्ला जैसे चरमपंथी संगठनों के लिए साजो-सामान जमा करने के लिए सीरिया सबसे उपयुक्त जगह है।

अमेरिका का दबदबा कम करना था रूस का मकसद

रूस का स्वार्थ तेल और मध्यपूर्व में अमेरिकी दबदबा रोकने को लेकर जुड़ा है। इसके अलावा, कुर्दिस्तान की मांग को लेकर कुर्द विद्रोहियों के अपने समीकरण हैं। एचटीएस में शामिल विद्रोही गुटों के भी अपने-अपने स्वार्थ हैं। इस तरह सत्ता हस्तांतरण के बाद वहां लोकतांत्रिक सरकार बन सकेगी और आम लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए समावेशी नीतियां बन सकेंगी, कहना मुश्किल है।

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दुनिया में कहीं भी लोग तानाशाही पसंद नहीं करते। सीरिया में असद और उनके पिता की तानाशाही और दमन से लोग परेशान थे। इस दृष्टि से लोगों में लोकशाही की उम्मीद स्वाभाविक है। मगर एचटीएस से जुड़े विद्रोही संगठनों का जैसा कट्टरपंथी रुझान रहा है, उसे देखते हुए अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि सीरिया में सत्ता का स्वरूप कैसा होगा। अगर वहां भी लीबिया और अफागानिस्तान जैसे हालात बन गए, तो वह असद की तानाशाही से बुरी स्थिति होगी।

आम नागरिकों की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। तुर्किए और ईरान जैसे देश उसे अपने मोहरे के तैर पर इस्तेमाल करते रहेंगे और तख्तापलट का असल मकसद कहीं गुम हो जाएगा। इससे दूसरे देशों के साथ संबंधों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका बनी रहेगी। भारत के साथ उसके संबंध भी इन प्रभावों से मुक्त नहीं माने जा सकते।