यह सवाल लंबे समय से विवाद का विषय बना हुआ था कि अमान्य विवाह की स्थिति में पैदा बच्चे को पिता की संपत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए या नहीं। अब सर्वोच्च न्यायालय ने इस मसले पर जिस तरह एक स्पष्ट फैसला सुनाया है, वह न केवल अधिकारों के लिहाज से महत्त्वपूर्ण है, बल्कि खासकर बच्चे के जीवन और अस्मिता को लेकर एक ऐतिहासिक नजरिया भी है। करीब तेरह साल पुरानी याचिका पर फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि शून्य या अमान्य ठहराए गए विवाह से पैदा बच्चे को भी वैध माना जाएगा।

ऐसे मामलों में बेटियां भी संपत्ति में बराबर की हकदार होंगी

साथ ही, हिंदू विवाह अधिनियम 16(2) के मुताबिक, जिन मामलों में अमान्य विवाह को रद्द कर दिया गया हो, तो उसके फैसले से पहले पैदा हुआ बच्चा भी कानूनी हक रखता है। अदालत ने कहा कि किसी भी अमान्य विवाह से जन्म लेने वाली संतान का उनके माता-पिता की अर्जित और पैतृक संपत्ति में अधिकार होगा। ऐसे मामलों में बेटियां भी संपत्ति में बराबर की हकदार होंगी। हालांकि यह फैसला हिंदू मिताक्षरा कानून के तहत हिंदू परिवारों की संपत्तियों पर ही लागू होगा।

विवाह को लेकर सामाजिक परंपरा और कानूनी अधिकार में काफी जटिलता है

दरअसल, भारत में विवाह की कानूनी व्यवस्था में पहली पत्नी के रहते दूसरा विवाह और उससे जन्म लेने वाली संतान को लेकर आम सामाजिक दृष्टि और उसके कानूनी अधिकारों को लेकर एक जटिल परंपरा कायम रही है। अब तक प्रचलित व्यवस्था में विवाहित पुरुष के किसी अन्य स्त्री से विवाह को कानूनी दर्जा नहीं दिया जाता है। इस तरह ऐसे संबंधों में जन्म लेने वाले बच्चे को लेकर भी लोग कई तरह की गलत धारणा के शिकार होते हैं। मसलन, आमतौर पर ऐसी स्थिति में बच्चे को ‘अवैध’ कह दिया जाता है।

इससे उपजे भावनात्मक या मानसिक दंश को सिर्फ वही समझ सकता है, जो इसकी पीड़ा से गुजर रहा होता है। यह अपने आप में एक बड़ी विडंबना है कि जिस बात के लिए बच्चा कहीं से जिम्मेदार नहीं है, उसकी वजह से उसके बारे में लोगों की राय बेहद संवेदनहीन और उसके अस्तित्व को खारिज करने वाली देखी जाती है। ‘अवैध’ होने के आरोप और इससे जुड़ी पहचान बेहद अपमानजनक और पीड़ादायक भी होती है, जो किसी भी व्यक्ति के स्वाभाविक जीवन को बाधित करती है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले की अहमियत इस बात में भी है कि यह आम समाज में प्रचलित धारणा को तोड़ने में सहायक होगी।

इसके अलावा, समाज और कानून की नजर में अमान्य विवाहों की स्थिति में पैदा बच्चे के अधिकारों को लेकर भी जटिल व्यवस्था रही है कि ऐसे बच्चे को पिता की संपत्ति में हिस्सेदारी मिले या नहीं। अब तक इस मसले पर ऐसे सवाल उठते रहे हैं कि विशेष स्थितियों को छोड़ कर जब किसी पुरुष के दूसरे विवाह को मान्यता नहीं है, तब उससे जन्म लेने वाली संतान को परिवार की संपत्ति में हिस्सेदारी कैसे सही है! लेकिन इस पहलू पर अब अदालत ने स्थिति स्पष्ट कर दी है कि जब अमान्य विवाह से पैदा बच्चा ‘अवैध’ नहीं है, तो उसे अपने पिता की संपत्ति में भी हिस्सा मिलना चाहिए।

अमान्य विवाह को भले कानूनी और सामाजिक दृष्टि से मंजूरी न दिए जाने की व्यवस्था रही है, लेकिन ऐसे रिश्ते में बच्चे के जन्म को ‘अवैध’ न मान कर माता-पिता के संबंध से स्वतंत्र रूप से देखा जाना चाहिए। यह मानवीय मूल्यों के लिहाज से तो जरूरी था ही, अब सर्वोच्च न्यायालय ने कानूनी कसौटी पर भी इसे व्यवस्था का रूप दे दिया है।