सर्वोच्च अदालत ने सूखा-राहत को लेकर एक बार फिर केंद्र और कई राज्य सरकारों को फटकार लगाई है। साथ ही राष्ट्रीय आपदा राहत कोष बनाने जैसे कई निर्देश भी दिए हैं। यह अफसोस की बात है कि जो काम सरकारों को खुद आगे होकर करना चाहिए उसके लिए अदालती निर्देश की जरूरत पड़ रही है। यों राजनीतिक दल किसानों के लिए आंसू बहाने में कभी पीछे नहीं रहते, मगर जमीनी इम्तहान में ये या तो फेल या फिसड्डी नजर आते हैं। कहने को सूखा प्रबंधन संहिता और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन निर्देशिका जैसे कई प्रावधान मौजूद हैं, जो हमारी सरकारों ने ही बनाए हैं, पर इच्छाशक्ति के अभाव में ये प्रावधान कागजी कवायद होकर रह गए हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने ‘स्वराज अभियान’ की याचिका पर सूखा-राहत के मामले को गंभीरता से लिया, तो इसलिए कि यह जीने के अधिकार से जुड़ा प्रश्न है, जिस अधिकार की गारंटी संविधान के अनुच्छेद इक्कीस में दी हुई है। देश के बारह राज्य भयंकर सूखे की चपेट में हैं। उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, ओड़िशा, झारखंड, बिहार, हरियाणा और छत्तीसगढ़ में बड़ी विकट स्थिति है। कुल तैंतीस करोड़ लोग सूखे से सीधे प्रभावित हैं। अप्रत्यक्ष प्रभाव तो पूरे देश और पूरी अर्थव्यवस्था पर है, यह अलग बात है कि हमारे नीति नियंता और क्रियान्वयन-कर्ता इस स्थिति के प्रति पूरी तरह सजग या संवेदनशील नहीं हैं। उद्योग संगठन एसोचैम ने अनुमान लगाया है कि सूखे की वजह से देश की अर्थव्यवस्था पर साढ़े छह लाख करोड़ रुपए का बोझ पड़ेगा। इस तरह के अध्ययन एक सतही अंदाजबयानी के अलावा और कुछ नहीं होते।

सूखे ने जो मानवीय संकट पैदा किया है उसका अंदाजा इस तरह के आंकड़े से नहीं लगाया जा सकता। बड़ी संख्या में लोग रोजगार या मजदूरी के लिए गांव-घर छोड़ने को विवश हुए हैं। चारे और पानी की कमी के चलते पशुओं का भी बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है। फसल चौपट होने और कोई मुआवजा न मिलने से किसान भारी मुसीबत में हैं, कुछ किसानों के खुदकुशी करने की भी खबर आई है। पिछले साल मानसून की समाप्ति पर ही सूखा पड़ने का अंदाजा हो गया था। लेकिन केंद्र ने न राज्यों को आगाह किया न राज्यों ने खुद एहतियाती तैयारी करने की जरूरत समझी। सूखे की घोषणा करने में राज्य आनाकानी करते रहे, जिसके लिए खासकर गुजरात, हरियाणा और बिहार की सरकारों को सर्वोच्च अदालत ने खरी-खोटी सुनाई है। अदालत ने कहा है कि हकीकत को स्वीकार करने का मतलब प्रशासन की नाकामी नहीं होता, फिर राज्य क्यों आंखे मूंदे रहे?

दरअसल, इस शुतुरमुर्गी रवैए की वजह यह रही होगी कि अगर सूखा घोषित किया जाएगा तो मुआवजे और राहत के कदम उठाने की मांग जोर पकड़ेगी, जिससे ये राज्य सरकारें बचना चाहती रही होंगी। राज्यों को सचेत न करने के लिए केंद्र ने एक दिलचस्प दलील पेश की, कहा कि वह संघीय ढांचे का सम्मान करता है इसलिए राज्यों को कोई निर्देश जारी करना जरूरी नहीं समझा गया। अगर यही बात थी तो केंद्र ने पहले अरुणाचल प्रदेश और फिर उत्तराखंड में संघीय भावना को क्यों ताक पर रख दिया? मनरेगा के मद का पिछले साल का बकाया केंद्र ने तब तक जारी नहीं किया जब तक इसके लिए सर्वोच्च अदालत की फटकार नहीं पड़ी। देखना है कि अदालत के नए निर्देशों से क्या फर्क पड़ता है।