सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के जजों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम प्रणाली भले बहाल हो गई हो, पर लगता है सरकार अब भी अपने पहले के रुख पर कायम है। गुरुवार को लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के लिखित जवाब में विधिमंत्री सदानंद देवगौड़ा ने कहा कि संसद को संविधान के दायरे में शीर्ष अदालत और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों को नियुक्त करने की प्रक्रिया और मानदंडों का संचालन करने का अधिकार है। पर गौड़ा सदन में पूछे गए इस सवाल का कोई साफ जवाब नहीं दे सके कि क्या सरकार राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति अधिनियम, 2014 की समीक्षा का प्रस्ताव करती है। सरकार की दुविधा समझी जा सकती है।

कोलेजियम प्रणाली की जगह वैकल्पिक व्यवस्था बनाने की उसकी कोशिश ने सारी विधायी प्रक्रिया पूरी कर ली थी। इस सिलसिले में लाए गए संविधान संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों ने पिछले साल अगस्त में आम राय से पारित किया था। इसके फलस्वरूप उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन होना था। पर करीब डेढ़ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों के संविधान पीठ ने आयोग के गठन के लिए बनाए गए अधिनियम को अवैधानिक ठहरा दिया।

नतीजतन, कोलेजियम प्रणाली बहाल हो गई। लंबे समय से इस प्रणाली को लेकर सवाल उठते रहे थे। आलोचना का प्रमुख आधार यह रहा है कि यह प्रणाली पर्याप्त पारदर्शी नहीं है, इसमें जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं। इसकी जगह नियुक्ति प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए जिसमें कार्यपालिका और विधायिका का भी प्रतिनिधित्व हो। कई देशों में ऐसी व्यवस्था है। भारत में भी, कोलेजियम प्रणाली शुरू से नहीं थी। करीब दो दशक पहले सर्वोच्च न्यायालय ने अपने दो फैसलों के जरिए इसे ईजाद भी कर दिया और स्थापित भी। और अब संसद की आम सहमति से पारित प्रस्ताव भी कोलेजियम का कुछ नहीं बिगाड़ सका।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से सरकार को तो झटका लगा ही, यह सवाल भी उठा कि क्या इस तरह संसद की सर्वोच्चता खारिज की जा सकती है? क्या यह सवाल संबंधित संविधान पीठ के सामने नहीं रहा होगा? संसद के दोनों सदनों में भारी समर्थन से पारित अधिनियम को अवैधानिक ठहराने में संविधान पीठ को हिचक क्यों नहीं हुई? पीठ के एक जज ने जरूर अलग राय जाहिर की, पर बाकी चार जजों ने अधिनियम को खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि यह अधिनियम न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप का रास्ता खोलता है, और इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती, क्योंकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता हमारे संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है जिसमें फेरबदल का अधिकार संसद को भी नहीं है।

लेकिन क्या कोलेजियम प्रणाली ही न्यायपालिका की स्वतंत्रता की शर्त है? अगर ऐसा है, तो मूल संविधान में इसका प्रावधान क्यों नहीं था? बहरहाल, कोलेजियम प्रणाली बहाल हो चुकी है। सरकार ने अपना पहले का रुख एक बार फिर दोहराया है, मगर न्यायिक नियुक्ति आयोग के लिए दोबारा विधेयक लाने का इरादा साफतौर पर जताना तो दूर, इस बारे में कोई संकेत तक नहीं दिए हैं। दरअसल, प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस फिर से वैसी कवायद करने के पक्ष में नहीं है, क्योंकि ऐसा करना न्यायपालिका से टकराव की नौबत लाना होगा। फिर कोलेजियम प्रणाली में सुधार के लिए खुद सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव मांगे हैं। सरकार ने सुझाव दिए भी हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया ऐसी बनेगी, जो आदर्श हो न हो, पहले से बेहतर जरूर होगी।