जो जितना प्रदर्शन कर लेता है, वह उतना ही ताकतवर नेता माना जाता है। इसलिए राजनेताओं और राजनीतिक दलों में प्राय: ऐसे प्रदर्शनों की होड़ नजर आती है। मगर इन प्रदर्शनों में आम लोगों को जो दुश्वारियां झेलनी और कई बार जान गंवा कर कीमत चुकानी पड़ती है, उसकी फिक्र शायद नहीं की जाती। इसी बेपरवाही का ताजा नतीजा है आंध्र प्रदेश में नेल्लोर का हादसा।

तेलुगू देशम पार्टी के चंद्रबाबू नायडू ने सड़क पर प्रदर्शन निकाला था। उसी दौरान भगदड़ मची और उसमें दब कर सात लोगों की मौत हो गई। कई गंभीर रूप से घायल हो गए हैं। बताया जा रहा है कि पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच हाथापाई शुरू हो गई, जिससे भगदड़ मची और यह हादसा हो गया। मृतकों के परिजनों को एनटीआर ट्रस्ट की तरफ से दस-दस लाख रुपए देने की घोषणा कर दी गई है।

इससे उन परिवारों के आंसू कितने पोंछ पाएंगे, कह नहीं सकते। पर गंभीर सवाल यह है कि राजनीतिक दल अपनी शक्ति प्रदर्शन की होड़ से फुरसत निकाल कर कब इस बात पर विचार करेंगे कि उनकी रैलियों में शामिल लोग बलि का बकरा नहीं होते। उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी उनकी होती है।

यह पहली घटना नहीं है, जब सड़क पर किसी राजनीतिक प्रदर्शन के दौरान भगदड़ मची या अचानक हिंसा भड़क उठी और लोग मारे गए। पश्चिम बंगाल के राजनीतिक इतिहास में ऐसी सैकड़ों घटनाएं दर्ज हैं। वहां तो हिंसा और राजनीति जैसे एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता एक-दूसरे पर हिंसक हमले करते ही रहते हैं। केरल में भी खूनी संघर्ष की अनेक गाथाएं हैं।

देश का शायद ही कोई ऐसा राज्य हो, जहां राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन में कार्यकर्ताओं, आम लोगों को कीमत न चुकानी पड़ी हो। रैलियों में भाड़े के कार्यकर्ता जुटाने की परंपरा अब पुरानी हो चुकी है। उसमें लोग लाए तो बड़े जोश के साथ हैं, पर उनकी सुरक्षा और खाने-पीने आदि की फिक्र कम ही की जाती है। ये भाड़े के लोग आमतौर पर सामान्य जन होते हैं।

उनका संबंधित दल से कोई वैचारिक लगाव भी नहीं होता। रैलियों में जब किसी वजह से भगदड़ मचती या हिंसक हमले शुरू होते हैं, तो उन्हें अपने बचाव का तरीका सूझ नहीं पाता और अक्सर वही बलि का बकरा बनते हैं। इसलिए भी शायद चंद्रबाबू नायडू जैसे नेताओं को उनकी कोई फिक्र नहीं होती।

विचित्र है कि चंद्रबाबू नायडू अपनी और अपनी पार्टी की अहमियत साबित करने सड़क पर प्रदर्शन करते निकले थे, मगर उनके कार्यकर्ताओं में ही अनुशासन नाम की चीज नजर नहीं आई। जब भी इस तरह भारी संख्या में भीड़ सड़कों पर निकलती है, तो किसी उपद्रव, हिंसा, भगदड़ आदि की आशंका रहती ही है। इसके मद्देनजर प्रशासन तो सतर्क रहता ही है, प्रदर्शन, रैली आदि आयोजित करने वाले संगठनों से भी अपेक्षा की जाती है कि उनके कार्यकर्ता अनुशासन का ध्यान रखें।

राजनीतिक दलों को तो खासकर इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि उनका विपक्षी उनके आयोजन में विघ्न डालने के मकसद से कोई उपद्रव रच सकता है। मगर तेलुगू देशम के कार्यकर्ता जब खुद ही आपस में भिड़ गए, तो उनसे भीड़ की व्यवस्था सुचारु बनाने की उम्मीद भी भला कितनी की जा सकती है। रैलियों, सड़क प्रदर्शनों आदि में होने वाले ऐसे हादसों की आपराधिक जिम्मेदारी तय होनी चाहिए, तभी शायद इन पर कुछ विराम लगने की उम्मीद की जा सकती है।