छह साल पहले जब सत्यम घोटाला उजागर हुआ तो उसने कॉरपोरेट जगत को हिला कर रख दिया था। फर्जी कंपनियां बना कर काले धन को सफेद करने के किस्से न जाने कितने होंगे। लेकिन सत्यम घोटाला दो खास मायनों में एकदम अलग किस्म का था। एक यह कि सत्यम कंप्यूटर्स सचमुच में एक कामयाब कंपनी थी, सॉफ्टवेयर निर्यात की देश की चौथी सबसे बड़ी कंपनी। इसके संस्थापक बी रामलिंग राजू एक समय भारत के सॉफ्टवेयर उद्योग के सितारे माने जाते थे।

घोटाले की दूसरी खास बात यह थी कि इसका खुलासा खुद रामलिंग राजू ने किया, जब सच उगलने के सिवा उनके सामने कोई चारा नहीं रह गया। राजू ने बहीखातों में मुनाफा काफी बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया था, जिससे कंपनी के शेयर सत्तर फीसद तक चढ़ गए। मगर इससे निवेशकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। फर्जीवाड़ा सात हजार करोड़ रुपए का था, पर निवेशकों को करीब चौदह हजार करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा। मामले की जांच सीबीआइ को सौंपी गई। सीबीआइ ने अपने आरोपपत्र में इसे देश का सबसे बड़ा कॉरपोरेट घोटाला करार दिया था।

विशेष अदालत ने बी रामलिंग राजू और उनके भाई समेत दस लोगों को आपराधिक षड्यंत्र और धोखाधड़ी आदि आरोपों में दोषी करार देते हुए सात साल की कैद की सजा सुनाई है। साथ ही राजू और उनके भाई पर पांच-पांच करोड़ रुपए का जुर्माना भी लगाया है। अन्य आठ आरोपियों पर अदालत ने अलग-अलग राशि के जुर्माने लगाए हैं, जिनमें अधिकतम जुर्माना पच्चीस लाख रुपए का है। महिंद्रा टेक ने सत्यम का अधिग्रहण करके उसे बचा लिया। और अब घोटाले के दोषियों को सजा भी सुनाई जा चुकी है। पर सत्यम प्रकरण से जो सवाल उठे वे कायम रहे हैं।

यह घोटाला केवल सत्यम के संचालकों के लालच और कारगुजारी का नतीजा नहीं था। यह फर्जीवाड़ा संभव नहीं होता, अगर कंपनी के लेखा-परीक्षण में गड़बड़ी न हुई होती। गौरतलब है कि सत्यम का लेखा-परीक्षण प्राइस वाटरहाउस जैसी जानी-मानी आॅडिटिंग कंपनी करती थी। इसके लेखाकार सत्यम की ओर से किए जाते रहे दावों पर मुहर लगाते चले गए, उसके बैंक-खातों से मिलान करने की जरूरत नहीं समझी। दरअसल, यह घोटाला लेखा-घोटाला भी है। इससे आॅडिटरों की साख पर बट््टा लगा और कॉरपोरेट प्रबंधन से उनके रिश्तों पर सवालिया निशान लगे।

इसका नतीजा यह हुआ कि कंपनी अधिनियम के कई प्रावधान बदले गए। मसलन, अंकेक्षकों में चक्रीय बदलाव अनिवार्य किया गया। कोई अंकेक्षक कंपनी, उसकी सहयोगी या आनुषंगिक कंपनी के साथ कारोबारी संबंध नहीं रख सकता। सेवा-शर्तों के उल्लंघन का दोषी पाए जाने पर अंकेक्षक के खिलाफ जुर्माना, दंड, वेतन-भत्तों की वापसी जैसी कार्रवाइयां हो सकेंगी। कोई अंकेक्षक बीस से अधिक कंपनियों का अंकेक्षण नहीं कर सकता।

इस तरह के कुछ और भी प्रावधान जोड़े गए। लेकिन यह घोटाला लेखा-परीक्षक संस्था की मिलीभगत के अलावा नियामक संस्थाओं की नाकामी को भी जाहिर करता है। फैसले का संदेश यही है कि लेखा परीक्षण में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के साथ-साथ कंपनियों के निदेशक मंडल भी अपने वित्तीय प्रशासन को लेकर अधिक सतर्क हों। नियामक संस्थाएं ज्यादा चौकसी बरतें।

एसोचैम का एक अध्ययन बताता है कि कॉरपोरेट धोखाधड़ी कम होने के बजाय उसमें बढ़ोतरी ही दर्ज हुई है। हाल में पेट्रोलियम मंत्रालय सहित कई मंत्रालयों के दस्तावेजों की चोरी सामने आई। इससे पता चलता है कि कुछ कंपनियां बेजा फायदा उठाने के लिए किस हद तक जा सकती हैं।

ऐसी करतूतों से पूरे कॉरपोरेट जगत की प्रतिष्ठा पर आंच आती है। समस्या यह है कि बड़े आर्थिक अपराधियों से सख्ती से निपटने की इच्छाशक्ति का हमारे राज्यतंत्र में अभाव रहा है। सत्यम के मुखिया ने खुद अपना अपराध कबूल कर लिया था। वरना अमूमन छोटी मछलियों पर कार्रवाई से आगे बात नहीं जाती।

 

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