इसमें कोई दोराय नहीं कि तेजी से डिजिटल होती दुनिया में साइबर फर्जीवाड़ा तथा इससे जुड़े अन्य अपराधों ने एक जटिल शक्ल अख्तियार कर ली है और उससे निपटने के लिए ठोस उपाय जरूरी हैं। मगर सवाल है कि अपराध या जोखिम से बचाव के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले किसी औजार को क्या एक नए तरह की असुरक्षा का वाहक बनने की इजाजत दी जा सकती है!

केंद्रीय संचार मंत्रालय की ओर से सोमवार को जारी एक आदेश के तहत यह कहा गया था कि सभी स्मार्टफोन कंपनियां नब्बे दिनों के भीतर अपने स्मार्टफोन में सरकार द्वारा तैयार किए गए साइबर सुरक्षा एप ‘संचार साथी’ को पहले से ही इस तरह इंस्टाल करें कि उसे डिलीट और प्रतिबंधित या अक्षम नहीं किया जा सके। सरकार के मुताबिक, यह एप मोबाइल उपयोगकर्ताओं को धोखाधड़ी वाले फोन और संदेशों की रपट लिखवाने के साथ-साथ चोरी हुए मोबाइल की जानकारी देने में मदद करता है। प्रथम दृष्टया सरकार की यह पहल तेजी से फैल रहे डिजिटल फर्जीवाड़े और इससे जुड़ी अन्य गड़बड़ियों से बचाना दिखता है, मगर किसी भी स्मार्टफोन की बाकी सुविधाओं तक इस एप की पहुंच और इसके काम करने के तरीके के संबंध में जैसे तथ्य सामने आए हैं, उसे लेकर स्वाभाविक ही इसका तीखा विरोध शुरू हो गया है।

यों संचार साथी एप पहले से ही इंटरनेट पर ‘सर्च इंजन’ पर मौजूद है, लेकिन अब तक इसे उपयोगकर्ता स्वैच्छिक तौर पर ही अपने स्मार्टफोन में डाउनलोड करते रहे हैं। ताजा आदेश में जिस तरह इसकी अनिवार्यता को लागू करने की बात कही गई, उसके बाद सरकार के इस फैसले पर सवाल उठे हैं। विपक्षी दलों की ओर से यह आशंका जताई गई है कि सरकार इसके जरिए व्यक्ति की निजता के अधिकार को खत्म कर उसकी हर गतिविधि की जासूसी करना चाहती है या उसकी निगरानी करना चाहती है। किसी स्मार्टफोन में इंस्टाल होने के बाद संदेशों से लेकर अन्य जरूरी सुविधाओं तक पहुंच होने की वजह से संचार साथी के बेजा इस्तेमाल को लेकर भी अनेक आशंकाएं सामने आने लगी हैं। अगर वे सही उतरीं, तो इसकी क्या गारंटी है कि इस एप के जरिए न केवल लोगों की निजता के अधिकार को ताक पर रखा जाएगा, बल्कि उनके फोन में छेड़छाड़ भी की जाएगी!

हालांकि इस फैसले पर चौतरफा सवाल उठने पर सरकार की ओर से सफाई आई कि लोग इसे चाहें तो न रखें या अगर फोन में है तो उसे डिलीट कर दें। यह वैकल्पिक है। अगर वास्तव में ऐसा ही है तो संचार साथी एप को क्यों नहीं ‘सर्च इंजन’ के तहत ही रहने दिया जाता है, ताकि जिन्हें जरूरी लगे, वे स्वैच्छिक रूप से डाउनलोड कर लें। फिर अगर डिजिटल फर्जीवाड़े या अन्य साइबर अपराधों से लोगों की सुरक्षा के लिए ऐसे आदेश जारी किए जाते हैं, तो इसके बजाय तकनीक तथा उसके उपयोग को लेकर देश भर में व्यापक प्रशिक्षण और जागरूकता का अभियान क्यों नहीं चलाया जाता? अपराधियों को पकड़ने में भी आधुनिक तकनीक आज कारगर भूमिका निभा रही है। एक समस्या स्मार्टफोन कंपनियों के सरकार के फरमान पर राजी होने को लेकर भी आ सकती है।

यों भी, यह विचित्र है कि नागरिकों के स्मार्टफोन में कोई ऐसा ऐप रखना अनिवार्य बनाया जाए, जिसे लेकर आशंकाएं उभर रही हों कि वह एप लोगों को कितना साइबर अपराधों से बचाएगा और किस स्तर पर जोखिम का वाहक बनेगा!