जांच एजंसियों का यह दायित्व होता है कि अगर कहीं से किसी गड़बड़ी की शिकायत आई है और उसकी पड़ताल करने की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई है तो उसे अंजाम देते हुए वे अपने अधिकारों और सीमा का खयाल रखें। लेकिन ऐसी शिकायतें अक्सर आती हैं कि जांच के क्रम में किसी एजंसी के अधिकारियों के पेश आने का तरीका कई बार भयादोहन की तरह लगने लगता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने मंगलवार को प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के बर्ताव को लेकर आई शिकायत पर सुनवाई करते हुए इसी प्रवृत्ति पर एक अहम टिप्पणी की कि एजंसी अपना काम जरूर करे, लेकिन डर का माहौल न पैदा करे। दरअसल, मामला छत्तीसगढ़ सरकार से संबंधित है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट में यह शिकायत की गई कि दो हजार करोड़ रुपए के शराब घोटाले से जुड़े धनशोधन के आरोपों की पड़ताल करते हुए ईडी बहुत आपाधापी में काम कर रहा है और उसका मकसद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को फंसाना है।

ईडी पर लगाए गए आरोपों के मुताबिक राज्य के आबकारी विभाग के कई अधिकारियों को गिरफ्तारी की धमकी भी दी गई है। किसी घोटाले की जांच के दायित्व को पूरा करना ईडी के अधिकार क्षेत्र में है, लेकिन अगर उस पर लगे आरोप सही हैं तो यह उचित तरीका नहीं है।

हालांकि ईडी की ओर से अदालत को यह सफाई पेश की गई कि जांच एजंसी सिर्फ शराब घोटाले से जुड़े मामले में हुई अनियमितताओं की जांच कर रही है। निर्धारित प्रक्रिया के तहत होने वाली जांच से किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन अगर इस क्रम में आरोपों के दायरे में आए संबंधित पक्षों के सामने भय का वातावरण बनाया जाता है, धमकी का इस्तेमाल किया जाता है तो यह अपने आप में जांच की प्रक्रिया को कठघरे में खड़ा करता है।

यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पक्ष पर अहम टिप्पणी की कि अगर जांच के क्रम में इस तरह का व्यवहार किया जाता है तो एक वास्तविक कारण भी संदिग्ध हो जाता है। कायदे से देखें तो छत्तीसगढ़ में शराब घोटाले का जो स्वरूप अब तक सामने आ सका है, उसकी उचित तरीके से पड़ताल होनी चाहिए और सभी तथ्य सामने आने चाहिए, ताकि असली दोषियों को सजा के अंजाम तक पहुंचाया जा सके। ईडी का भी मकसद यही होगा। लेकिन इतने भर से किसी को अधिकारों और दायित्वों की सीमा का खयाल न रखने की छूट नहीं मिल जाती।

विडंबना यह है कि इससे पहले भी ईडी की कार्यशैली को लेकर सवाल उठ चुके हैं और अदालतों की ओर से उसकी सीमा को लेकर स्पष्ट टिप्पणियां की गई हैं। इसके बावजूद अगर किसी पक्ष से ईडी पर भय पैदा करके मनमानी करने के आरोप लग रहे हैं और अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है तो इससे जांच एजंसी की साख को नुकसान ही पहुंचेगा।

यों भी पिछले कुछ सालों में प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग और सीबीआइ की ओर से लक्ष्य करके डाले गए छापों के बारे में यह कहा जाने लगा है कि ये एजंसियां सरकार के इशारे पर काम कर रही हैं; कई बार वे दायरे से बाहर जाकर भी काम करती हैं और इस तरह उनका मकसद जांच करने के बजाय किसी को परेशान करना ज्यादा हो जाता है।

हालांकि इस तरह के आरोप सभी सरकारों के दौर में लगते रहे हैं। लेकिन अगर किसी मामले में हो रही कार्रवाई में बदले की भावना रखने के आरोप सामने आने लगते हैं तो इससे जांच की विश्वसनीयता भी प्रभावित होती है। जरूरत इस बात की है कि किसी भी जांच एजंसी के दायित्वों या कार्यशैली को लेकर सभी पक्षों के बीच भरोसा मजबूत हो।