आरक्षण हमारे देश की राजनीति का बहुत नाजुक विषय रहा है। इस पर कुछ भी बोलना खतरे से खाली नहीं। अगर चुनाव नजदीक हो, तो यह खतरा और बढ़ जाता है। इसलिए हैरत की बात नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का बयान फौरन विवाद का विषय बन गया। संघ के मुखपत्र ‘आर्गनाइजर’ को दिए इंटरव्यू में भागवत ने कहा है कि आरक्षण का राजनीतिक उद्देश से इस्तेमाल हो रहा है और इस बात की समीक्षा करने की जरूरत है कि आरक्षण की जरूरत किसे और कब तक है। जाहिर है, इस कथन में आरक्षण को लेकर पुनर्विचार का एक आग्रह दिखता है। राजनीति से लेकर समाज विज्ञान तक ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो आरक्षण पर नए सिरे से सोचने की जरूरत जताते हैं।

पर भागवत के बयान ने इतना तूल पकड़ लिया तो इसलिए कि संघ का सीधा रिश्ता भाजपा से है और संघ के बहाने भाजपा को घेरा जा सकता है। लालू प्रसाद यादव ने एक के बाद एक कई ट्वीट करके भागवत और भाजपा पर निशाना साधा। बचाव की मुद्रा में आई भाजपा को सफाई देनी पड़ी कि भागवत के बयान से उसका कोई लेना-देना नहीं है, और पार्टी उन लोगों को आरक्षण दिए जाने की हिमायती है जिन्हें पहले से आरक्षण मिल रहा है। अगर भाजपा का भी यही नजरिया है तो पुनर्विचार की क्या जरूरत है! भाजपा और संघ का वैचारिक रिश्ता जगजाहिर है। भागवत यह तो चाहते हैं कि देश में नए सिरे से विचार हो कि आरक्षण की किसे और कब तक जरूरत है, मगर वे भाजपा को ही अपने नजरिए का कायल नहीं कर पाए हैं!

दरअसल, भागवत ने जो कुछ कहा, शायद गुजरात को ध्यान में रख कर। आरक्षण के लिए पाटीदार समुदाय के आंदोलन ने भाजपा और संघ को झकझोर दिया है। उन्हें लगता है कि अगर इस समुदाय की नाराजगी बनी रही, तो गुजरात का उनका किला दरक सकता है। मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल कह चुकी हैं कि पाटीदार समुदाय को आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकता। भागवत के बयान से ऐसा लगता है कि वे पाटीदार समेत उन समुदायों को उम्मीद का संदेश देना चाहते हैं जो आरक्षित वर्ग में नहीं आते, पर इसके लिए बेचैन हैं। यह भाजपा की भी चिंता होगी। उसकी परेशानी बस इस बात को लेकर है कि आरक्षण का लाभ पा रहे तबके कहीं उसे लेकर अंदेशा न पाल लें, वरना बिहार चुनाव में नुकसान हो सकता है।

कांग्रेस नेता और पूर्व सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने तो खुल कर आरक्षण का आधार बदलने और उसे आर्थिक आधार पर दिए जाने की वकालत की है। लेकिन लालू और नीतीश के निशाने पर कांग्रेस नहीं, भाजपा है, क्योंकि उनकी चुनावी लड़ाई उसी से है। आरक्षित वर्गों में भी अंतर्विरोध हैं, उनमें बहुतों को लगता है कि आरक्षण का लाभ उन्हें बिल्कुल नहीं या बहुत कम मिल पा रहा है।

अगर आरक्षण को अधिक तर्कसंगत बनाने की बहस चले, तो इसमें क्या हर्ज है! मगर आरक्षण पर पुनर्विचार की वकालत इस ढंग से नहीं की जानी चाहिए कि वंचित तबके आशंकित हों और न ही इस तरीके से कि मानो सारी समस्याओं का समाधान आरक्षण के दायरे में ही होगा। गरीबी और बेरोजगारी से आरक्षण के जरिए नहीं, बल्कि आर्थिक नीतियों और योजनाओं के जरिए ही निपटा जा सकता है।

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta