हिमालय के क्षेत्र में ऐसी आपदाओं का बार-बार दस्तक देना बड़े खतरों का संकेत है। रविवार सुबह चमोली जिले के रैणी गांव से बीस किलोमीटर ऊपर से एक हिमनद टूट कर ऋषिगंगा नदी में गिर गया। इसके बाद यह तूफानी रफ्तार से बढ़ता गया और जो इसकी चपेट आया, इसमें समाता हुआ बह गया। तबाही के इस खौफनाक मंजर ने जून, 2013 की केदारनाथ आपदा की याद दिला दी जिसमें बादल फटने से आई बाढ़ में करीब छह हजार लोग बह गए थे। चमोली जिले में हुए इस हादसे में कितने लोग मारे गए होंगे, अभी इसका कोई अनुमान नहीं है।
हालांकि सरकारी स्तर पर दो सौ लोगों के लापता होने की बात है। सबसे ज्यादा तबाही शुरू के दो घंटों में हुई और वह भी तेज जल प्रवाह के कारण। यह सब कुछ दिन में घटित हुआ, इसलिए लोगों को बचाव का मौका भी मिल गया। अगर रात का वक्त होता तो लोगों को बचने का मौका भी नहीं मिल पाता और भारी जनहानि हो सकती थी। पहाड़ी क्षेत्रों में इस तरह की घटनाओं को रोक पाना संभव नहीं है। ऐसे में बचाव के सर्वश्रेष्ठ उपाय ही मानवीय क्षति को कम कर सकते हैं।
हिमनदों का पिघलना, टूट कर नदियों में गिरना, बादल फटने जैसी घटनाएं हिमालय क्षेत्र में सामान्य बात हैं। जिस तरह की आपदा रविवार को आई, इसके संकेत करीब चार दशक पहले से ही मिलने लगे थे। भूविज्ञानी पहले ही चेता चुके थे कि ऋषिगंगा क्षेत्र में आठ हिमनदों के पिघलने की दर सामान्य से अधिक है। जाहिर है कि जब-जब ये टूटेंगे तो ऋषिगंगा में ही गिरेंगे और कहर बरपाएंगे। ऋषिगंगा नदी पर हिमनदों के टूटने से जो दबाव बनता है, उससे आसपास की नदियों- धौलीगंगा, विष्णुगंगा, अलकनंदा और भागीरथी में जल प्रवाह उग्र रूप धारण कर लेता है।
बढ़ते तापमान और हिमालय के भीतर हो रहे परिवर्तन भी हिमनदों की प्रकृति को तेजी से बदल रहे हैं, जिससे इनके टूटने की घटनाएं भी तेजी से बढ़ रही हैं। यह ऐसा प्राकृतिक संकट है जिससे कोई बचा नहीं सकता। इन खतरों को देखते हुए ही नदियों पर बांध बनाने को लेकर चेताया जाता रहा है। चमोली की इस आपदा में ऋषिगंगा पर बनी तेरह मेगावाट की बिजली परियोजना और धौलीगंगा पर पांच सौ बीस मेगावाट की बिजली परियोजना पूरी तरह से बह गई और इन पर काम कर रहे लोग भी इस आपदा का शिकार हो गए। इसलिए यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिए कि वैज्ञानिकों की चेतावनियों के बावजूद ऐसी परियोजनाएं इलाकों में क्यों बनाई जाती हैं?
पहाड़ी इलाकों में रहने वाले निवासियों का जीवन बेहद कठिन होता है। प्राकृतिक कारण इसे और जोखिमभरा बना देते हैं। ऐसे में प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि आपदाओं के लिहाज से जो इलाके संवेदनशील और बेहद खतरनाक हैं और जिन इलाकों में ऐसी आपदाओं के बारे में वैज्ञानिक सचेत करते रहे हैं, उन इलाकों में ऐसी सुविधाएं विकसित करने पर जोर दिया जाए जो बेहद गंभीर संकट में भी लोगों को बचा सकें।
जिस तेजी से आपदा प्रबंधन दलों, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस और सेना के जवानों व स्थानीय नागरिकों ने बचाव के काम शुरू किए, उससे कई लोगों की जान बचा ली गई। केदारनाथ के हादसे से सबक लेकर आपदा प्रबंधन के स्तर पर काफी सुधार देखने को मिला है। यह हादसा एक बार फिर चेता रहा है कि प्रकृति के साथ संतुलन बनाया जाए, न कि उस पर अतिक्रमण हो।

