महाराष्ट्र में क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के साथ अक्सर जैसा बर्ताव होता रहा है, उससे यह सवाल उठा है कि क्या देश के नागरिकों को रोजी-रोटी के लिए दूसरे इलाकों में जाने और रहने का अधिकार है या नहीं! मुंबई में राष्ट्रीय स्तर की कोई परीक्षा देने पहुंचे युवाओं के साथ कई बार मारपीट की गई, परीक्षा नहीं देने दिया गया। अब तक बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के साथ हिंसक व्यवहार करने वाले अराजक तत्त्वों को आमतौर पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना या शिवसेना जैसी पार्टियों का संरक्षण मिलता रहा है।

मनसे के नेता राज ठाकरे ने तो खुलेआम बिहार और उत्तर प्रदेश से मुंबई जाकर गुजारा करने वालों के खिलाफ संगठित अभियान चलाया है। मगर अब मराठी अस्मिता की राजनीति के नाम पर खुद राज्य की भाजपा सरकार भी देश के संविधान का मखौल उड़ाने पर उतारू है। महाराष्ट्र के परिवहन मंत्री दिवाकर राउते की एक ताजा घोषणा के मुताबिक मुंबई में अब सिर्फ उन्हीं लोगों को आॅटो चलाने का परमिट मिलेगा, जो मराठी बोल सकते हैं और पिछले पंद्रह सालों से संबंधित इलाके के निवासी हों।

संभव है कि इसके पीछे भाजपा का मकसद नागरिक निकायों के आगामी चुनावों में स्थानीय लोगों का समर्थन हासिल करना हो, लेकिन क्या राजनीतिक जीत-हार के लिए उन लाखों लोगों का रोजगार छीनने का इंतजाम किया जा सकता है, जो देश के दूरदराज इलाकों से मुंबई जैसे महानगरों में रोजी-रोटी की तलाश में आते हैं? फिर आॅटो चलाने के लिए स्थानीय भाषा जानने की जो दलील दी गई है, उसकी क्या तुक है?

एक मराठीभाषी मुसाफिर की सुविधा के लिए चालक को अगर यह भाषा जानना अनिवार्य है तो इस दलील का विस्तार कितनी भाषाओं तक होगा? मुंबई में आॅटो में सफर करने वाले लोग केवल मराठीभाषी नहीं होते। देश के तमाम दूसरे इलाकों से वहां रोजगार से लेकर विदेशों से घूमने-फिरने के मकसद से भी लोग आते हैं, जो सिर्फ अपनी जुबान बोलते-समझते हैं। मगर ऐसे यात्रियों के लिए कोई आॅटो चालक उनकी भाषा न जानने की वजह से शायद ही कभी कोई बाधा बनता है। इसलिए यह दलील बेमानी है कि मराठीभाषी लोगों के हित में यह फैसला किया जा रहा है।

दरअसल, यह एक शुद्ध राजनीतिक मुद्दा है, जो मराठी अस्मिता के नाम पर अक्सर भुनाया जाता रहा है। हालांकि शिवसेना या मनसे जैसी क्षेत्रीय पार्टियां जब इसी तरह गैर-मराठी लोगों के खिलाफ आक्रामक और हिंसक अभियान चलाती हैं, तो उसे आमतौर पर दुराग्रह कह कर नजरअंदाज कर दिया जाता है।

लेकिन जब खुद को राष्ट्रीय पार्टी कहने वाली भाजपा की सरकार भी भाषा और स्थानीयता के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव करने लगे तो इसे देश के संविधान और संघीय ढांचे के लिहाज से उचित नहीं कहा जा सकता। फिर महाराष्ट्र में सत्ता में रहते हुए भाजपा अगर बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को रोजी-रोटी से वंचित करने का उपाय करती है, तो वह किस मुंह से इन राज्यों में अपने लिए समर्थन की मांग करेगी?