दिल्ली के रामलीला मैदान में रविवार को कांग्रेस ने किसान रैली आयोजित कर भाजपा को एक बार फिर ऐसे मसले पर घेरने की कोशिश की है जिस पर वह लगातार बचाव की मुद्रा में रही है। भूमि अधिग्रहण पर दिल्ली में यह कांग्रेस की दूसरी रैली थी। पहली रैली अप्रैल में हुई थी, तब राहुल गांधी दो महीने की छुट्टी से लौटे थे। कयास लगाए जा रहे थे कि वे कांग्रेस की भावी दिशा और रणनीति पर एकांत में चिंतन-मनन के लिए विदेश प्रवास पर गए हैं और शायद पार्टी में नई ऊर्जा लाने की तजवीज लेकर लौटें। यह उम्मीद कहां तक पूरी हुई, यह तो पार्टी ही बेहतर जानती होगी, पर यह कहना गलत नहीं होगा कि अप्रैल की रैली दो महीने के अवकाश के बाद राहुल गांधी की वापसी को जोरदार बनाने के लिए भी थी।
एक बार फिर उसी मुद्दे पर रैली करने की कायदे से कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए, क्योंकि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को फिर से जारी न कर सरकार अपने कदम पीछे खींच चुकी है। लेकिन यह ‘किसान सम्मान रैली’ थी, किसानों को उनकी जीत का अहसास कराने या इसका जश्न मनाने के लिए। साथ ही जीत का सेहरा पार्टी के सिर पर बांधने के लिए। कांग्रेस के हमलों के जवाब में केंद्र के तीन कैबिनेट मंत्रियों ने पलटवार किया। पर इस बात का उनके पास शायद ही कोई जवाब हो कि 2013 में जिस कानून का भाजपा ने खुल कर समर्थन किया था, अब उसमें उसे खामी ही खामी क्यों दिख रही है!
आखिर क्यों कांग्रेस इसी मुद्दे पर सबसे ज्यादा मुखर रही है? एक सीधा कारण तो यही है कि मोदी सरकार ने उस कानून पर पानी फेरने की ठानी, जिसे कांग्रेस अपनी बड़ी उपलब्धि बताती रही। दूसरा कारण यह है कि मोदी सरकार के इस कदम की मुखालफत में कांग्रेस को अपने लिए नई संजीवनी भी नजर आई, क्योंकि तमाम किसान संगठन इसके विरोध में पहले ही खड़े हो चुके थे। विपक्ष में अपनी केंद्रीयता जताने में इस विरोध ने कांग्रेस की मदद की, तमाम विपक्षी नेताओं ने सोनिया गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया था।
इन्हीं सब वजहों से, यह जानते हुए भी कि कॉरपोरेट जगत उसके रुख से नाराज होगा, कांग्रेस ने भूमि अध्यादेश का खुल कर विरोध करने का फैसला किया। रविवार को हुई पार्टी की रैली से जाहिर है कि भूमि अधिग्रहण को लेकर सियासी सरगरमी अभी जारी रहेगी। एक तो इसलिए कि अध्यादेश भले आगे न बढ़ाया गया हो, भूमि अधिग्रहण विधेयक लंबित है और उसके मसविदे पर संयुक्त संसदीय समिति विचार कर रही है जिसे शीतकालीन सत्र से पहले अपनी रिपोर्ट देनी है।
दूसरे, नीति आयोग के सुझाव के सहारे केंद्र राज्यों में भूमि अधिग्रहण संबंधी मनमाफिक कानून बनवाना चाहता है, तो कांग्रेस ने भी अब अपनी लड़ाई राज्यों के स्तर पर ले जाने का एलान कर दिया है। रैली को बिहार चुनाव से भी जोड़ कर देखा गया। यह अनुमान अपनी जगह सही होगा, पर देश की राजधानी में किसान रैली करने के पीछे पार्टी की रणनीति कुछ और भी रही होगी। बहुतेरे राज्यों में कांग्रेस की हालत खराब है और किसानों के लिए संघर्ष का दावा पेश कर वह नए सिरे से शक्ति संजोने की कोशिश कर रही है। इसमें उसे कितनी कामयाबी मिलेगी, इस बारे में कुछ कहना फिलहाल जल्दबाजी होगी।
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