जन प्रतिनिधियों को मिलने वाले वेतन-भत्ते और दूसरे खर्चों के मद में बढ़ोतरी मुख्य रूप से महंगाई को ध्यान में रख कर की जाती है। यह अलग बात है कि इसका आकलन और निर्धारण खुद जनप्रतिनिधि ही करते हैं। मगर कई बार यह बढ़ोतरी इतनी अतार्किक हो जाती है कि उसकी तरफ स्वाभाविक ही अंगुलियां उठने लगती हैं।

दिल्ली नगर निगम में पार्षदों के मासिक और बैठक भत्ते में बढ़ोतरी का प्रस्ताव कुछ वैसा ही है। नगर निगम ने पार्षदों का मासिक भत्ता तीन हजार रुपए से बढ़ा कर एक लाख रुपए और बैठक भत्ता तीन सौ रुपए से बढ़ा कर पच्चीस हजार रुपए करने का प्रस्ताव पारित कर दिया है। हालांकि उन्हें भत्ते के रूप में मिलने वाली मौजूदा राशि आज के समय में बहुत कम कही जा सकती है।

तीन हजार रुपए महीने में तो आजकल किसी विद्यार्थी का भी खर्चा नहीं चल पाता। तीन सौ रुपए में कई लोगों का जेबखर्च नहीं चलता। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इनमें बढ़ोतरी की मांग वाजिब थी। मगर तीन सौ रुपए से बढ़ा कर एकदम से पच्चीस हजार रुपए कर देने को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।

इस बढ़ोतरी पर दिल्ली की महापौर का कहना है कि चूंकि निगम पार्षदों को कोई वेतन नहीं मिलता, उन्हें भत्ता दिया जाता है, इसलिए इतने भत्ते में उनका खर्च नहीं चल पाता। यह पहला मौका नहीं है, जब आम आदमी पार्टी को अपने जनप्रतिनिधियों के वेतन और भत्ते बढ़ाने को लेकर आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। जब पहली बार दिल्ली में विधायकों के वेतन और भत्तों में बढ़ोतरी की गई थी, तब भी सवाल उठे थे।

तब मुख्यमंत्री का कहना था कि विधायकों को चूंकि अपने दफ्तर का खर्च भी उठाना पड़ता है, सैकड़ों लोग उनके दफ्तरों में रोज आते हैं, उन्हें चाय-पानी पिलाने आदि पर खर्च करना पड़ता है, उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र में लगातार लोगों से संपर्क करना पड़ता है और इन सबमें काफी खर्च आता है। महंगाई बढ़ने से उनके वेतन और भत्तों से वह खर्च पूरा नहीं हो पाता।

फिर उन्होंने यह भी तर्क दिया था कि दूसरे दलों के विधायक चूंकि दूसरे तरीकों से अपने खर्चे जुटा लेते हैं, आम आदमी पार्टी के विधायक उन्हीं पैसों से खर्च चलाते हैं, जो उन्हें सरकार देती है। यही तर्क पार्षदों के मामले में भी दिया जा सकता है। मगर यह सवाल फिर भी बना रहेगा कि क्या जनप्रतिनिधियों के वेतन और भत्तों में बढ़ोतरी से भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में मदद मिल सकती है।

इस बढ़ोतरी से यह भी सवाल उठता है कि आखिर अब तक इसमें बढ़ोतरी की मांग क्यों नहीं उठी और कैसे पार्षद तीन हजार रुपए मासिक और तीन सौ रुपए प्रति बैठक भत्ते से अपने खर्च चलाया करते थे। दिल्ली नगर निगम में अक्सर अनियमितताओं की शिकायतें आती रहती हैं। बहुत सारे काम चूंकि ठेके पर होते हैं, इसलिए उनमें कमीशनखोरी भी जगजाहिर है।

ऐसे में शायद पार्षदों को सरकार से मिलने वाले भत्ते की कम राशि से कोई फर्क न पड़ता रहा हो। मगर आम आदमी पार्टी इनमें बढ़ोतरी करके अनियमितताओं पर रोक लगाने का दावा कैसे कर सकती है। इससे बेशक करदाता का पैसा अधिक खर्च होना शुरू हो जाएगा। हालांकि अभी इस प्रस्ताव को शहरी विकास विभाग और उपराज्यपाल के पास मंजूरी के लिए भेजा जाएगा, इसलिए देखने की बात है कि इसमें वास्तविक बढ़ोतरी कितनी हो पाती है।