सेवानिवृत्त फौजियों की एक रैंक एक पेंशन की मांग बहुत पुरानी है। कुछ समय से इसने तूल पकड़ लिया है, तो इसकी वजह राजनीतिक भी है। भारतीय जनता पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनाव में भरोसा दिलाया था कि अगर उसे सत्ता में आने का मौका मिला तो इस मांग को पूरा करेगी। पार्टी को इसका लाभ भी मिला। चुनाव में उसे काफी हद तक पूर्व सैनिकों का समर्थन हासिल हुआ। मोदी ने सत्ता संभालने के बाद भी इस आश्वासन को दोहराया।

सरकार की ओर से कई बार ऐसे संकेत दिए गए कि एक रैंक एक पेंशन की व्यवस्था लागू करने की तैयारी कर ली गई है, जल्दी ही इसकी घोषणा कर दी जाएगी। मगर भाजपा के केंद्र की सत्ता में आने के पंद्रह महीने हो चुके हैं और एक रैंक एक पेंशन का मसला पहले की ही तरह अनसुलझा है। इससे पूर्व सैनिकों में नाराजगी बढ़ रही है। सत्तारूढ़ दल के आश्वासन के मद््देनजर उन्हें आंदोलन करने की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन इस मामले में सरकार की चुप्पी और हीलाहवाली को देखते हुए पूर्व सैनिकों को इसके सिवा कोई चारा नजर नहीं आया।

एक रैंक एक पेंशन की मांग को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर कई दिनों से उनका धरना चल रहा है। उन्हें उम्मीद थी कि स्वाधीनता दिवस के संबोधन में प्रधानमंत्री उनकी मांग की बाबत कोई घोषणा करेंगे। पर उन्हें मायूस होना पड़ा। अब सेना के तीनों अंगों के कई पूर्व शीर्ष अधिकारी भी मुखर हुए हैं। उन्होंने इस मांग के समर्थन में प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा है।
आखिर क्या कारण है कि सरकार अपने ही वादे को लेकर इस कदर ऊहापोह में है।

दरअसल, यह मामला इस बात का एक ताजा उदाहरण है कि चुनाव के समय पार्टियां कोई वादा तो कर देती हैं, मगर उस पर सोचती हैं बाद में। भाजपा ने एक रैंक एक पेंशन की मांग को पूरा करने का आश्वासन तो दे दिया मगर इसकी जटिलता पर उसने शायद उस वक्त विचार नहीं किया होगा। समान रैंक के लिए समान पेंशन की मांग देखने में बिल्कुल सीधी और एकदम उचित जान पड़ती है। पर इसका मतलब है कि कोई एक साल ब्रिगेडियर रह कर सेवानिवृत्त होता है, और कोई इस पद पर चार या पांच साल रहने के बाद, तो दोनों की पेंशन में कोई फर्क नहीं होना चाहिए।

जबकि सरकार का कहना है कि पेंशन-निर्धारण में संबंधित रैंक के सेवा-काल के अलावा किसी फौजी के पूरे सेवा-काल को भी आधार बनाया जाता है। मगर भाजपा नेताओं ने इस पेचीदगी पर पहले गौर क्यों नहीं किया। सरकार की एक परेशानी वित्तीय भी है। उसे लगता है कि पूर्व सैनिकों की मांग मान लेने से फौरी तौर पर तो कई हजार करोड़ रुपए का भार उसे उठाना ही होगा, आगे हर साल यह वित्तीय बोझ बढ़ता जाएगा। दस साल के अंतराल पर हर नए वेतन आयोग के साथ इस पेंशन के मद में और बढ़ोतरी होगी। लेकिन एक रैंक एक पेंशन की मांग पूर्व सैनिकों से किया गया सरकार का वादा है। इसलिए इस गुत्थी को सुलझाने की जिम्मेदारी भी उसी की है।