सरकार लंबे समय से चाहती रही है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं। प्रधानमंत्री कई मौकों पर दोहरा चुके हैं कि ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ का विधान होना चाहिए। इसे लेकर निर्वाचन आयोग मंथन भी कर चुका है। विधि आयोग ने भी इस पर अपने विचार दिए हैं। अब लगता है कि यह व्यवस्था लागू करने की कोई सूरत बन सकेगी। इसके लिए केंद्र ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर दी है। यह समिति किस तरह इस विचार को व्यावहारिक रूप दे पाती है, देखने की बात है।

सभी चुनाव एक साथ कराने से सार्वजनिक धन की काफी बचत होगी

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग समय पर कराने से सरकारी खजाने पर भारी बोझ पड़ता है। सरकारी कर्मचारियों का काफी समय इनकी तैयारियों और इन्हें संपन्न कराने में जाया हो जाता है। ऐसे में सारे चुनाव एक साथ कराने से सार्वजनिक धन की काफी बचत होगी।

असल मुश्किल संविधान संशोधन और आगे भी व्यवस्था बनाए रखने की है

हालांकि निर्वाचन आयोग बता चुका है कि इसके लिए उसे बड़ी संख्या में वोटिंग मशीनों और दूसरे उपकरणों की जरूरत पड़ेगी। मगर अलग-अलग चुनावों पर आने वाले खर्च की तुलना में इन संसाधनों को जुटाना कोई बड़ा काम नहीं माना जा सकता। असल मुश्किल संविधान संशोधन और फिर यह सुनिश्चित करने की है कि भविष्य में भी चुनाव एक साथ होते रहें। इसका क्या विधान होगा, यह एक जटिल काम है।

आजादी के बाद शुरू के बीस वर्ष एक साथ चुनाव हुआ करते थे

आजादी के शुरुआती वर्षों में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुआ करते थे। मगर करीब बीस वर्षों बाद कुछ विधानसभाएं और फिर लोकसभा अपना तय कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई, जिसके चलते वह चक्र टूट गया और फिर टूटता ही गया। अब स्थिति यह है कि साल में कई चुनाव कराने पड़ते हैं। इस तरह चुनावों का मौसम कई बार साल भर बना रहता है। इससे राजनीतिक दलों के नेताओं को अपना काफी वक्त इसमें देना पड़ता है।

निर्वाचन आयोग को भी पूरे समय अपना ध्यान कहीं न कहीं चुनाव की तैयारियों पर लगाए रखना पड़ता है। सुरक्षाबलों और सरकारी कर्मचारियों को अपने नियमित कामकाज छोड़ कर इनमें शामिल होना पड़ता है। चुनाव खर्च का बजट लगातार बढ़ता गया है। इस पर काबू पाना निश्चित रूप से अच्छा विचार है। मगर इसके लिए कई विधानसभाओं के कार्यकाल में कटौती और कई के कार्यकाल में विस्तार करना आसान नहीं होगा। जिन विधानसभाओं के चुनाव कुछ समय पहले ही हुए हैं और उनका कार्यकाल तीन साल से अधिक है, उन्हें यह फैसला स्वीकार्य नहीं होगा। फिर, यह संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन होगा।

एक साथ चुनाव कराने की व्यवस्था लागू होने के बाद फिर भी यह सवाल बना रहेगा कि अगर आगे कभी लोकसभा या कोई विधानसभा अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाती, बीच में ही सरकार गिर जाती है, तो उस स्थिति में क्या होगा। ऐसे में मध्यावधि चुनाव के बजाय क्या तब तक वैकल्पिक व्यवस्था लागू रखी जाएगी, जब तक कि अगले चुनाव का समय नहीं आ जाता? ऐसा नियम बनाने से पूरी शासन-प्रणाली गड़बड़ा सकती है।

इसलिए केंद्र सरकार की ताजा पहल पर विपक्षी दलों का कहना है कि अगर यह व्यवस्था लागू होती है, तो पूरा संघीय ढांचा ही खतरे में पड़ सकता है। इस महीने बुलाए गए संसद के विशेष सत्र में सरकार इसकी क्या रूपरेखा पेश करती है, सारी कवायद उसी पर निर्भर करेगी। पर यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि किसी भी रूप में इसका ढांचा अव्यावहारिक नहीं होना चाहिए।