शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थियों को शारीरिक सजा देने पर कानूनन सख्त पाबंदी है। किसी भी तरह की प्रताड़ना को शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 की धारा 17 (एक) का उल्लंघन माना गया है। बावजूद इसके कई शिक्षक आज भी बच्चों और किशोरों को शारीरिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित करने से बाज नहीं आते। हिमाचल प्रदेश में शिमला जिले के रोहड़ू स्थित एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय में हाल में एक ऐसा ही मामला सामने आया है। प्रधानाध्यापिका ने पांचवीं कक्षा के एक छात्र की कमीज उतरवा कर कांटेदार छड़ी से उसकी पिटाई की।
इसका वीडियो सोशल मीडिया पर प्रसारित होने के बाद शिक्षा विभाग ने आरोपी प्रधानाध्यापिका को निलंबित कर दिया है। सवाल है कि अगर विद्यालय के प्रमुख ही मासूम बच्चों से इस तरह का अमानवीय व्यवहार करेंगे तो अन्य शिक्षकों में इसका क्या संदेश जाएगा? विद्यालयों में बच्चों को सुरक्षित एवं पठन-पाठन के लिए बेहतर माहौल प्रदान करने की जिम्मेदारी संभालने वाले शिक्षकों के ऐसे आचरण को कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है?
हिमाचल प्रदेश में हाल के दिनों में किसी स्कूली बच्चे को शारीरिक सजा देने का यह पहला मामला नहीं है। इससे पहले चंबा के भरमौर मंडल में शिक्षक द्वारा पिटाई की वजह से तीसरी कक्षा के एक बच्चे के कान का पर्दा फट गया था। इसी तरह हमीरपुर के एक विद्यालय में विद्यार्थियों को प्रताड़ित करने का मामला भी सामने आया था। ऐसे में सवाल है कि क्या शिक्षकों को यह प्रशिक्षण नहीं दिया जाता कि बच्चों से कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए? पिटाई से उनके कोमल मन पर कितना गहरा और दीर्घकालिक प्रभाव पड़ सकता है?
अगर विद्यालय में कोई बच्चा शरारत या गलती करता है, तो उसे मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाया जाना चाहिए। भय का माहौल बनाना या शारीरिक सजा देना कानूनन अपराध है। इस तरह के असुरक्षित वातावरण में डरे-सहमे बच्चों की पढ़ाई पर भी बुरा असर पड़ता है। सरकार और शिक्षा विभाग को चाहिए कि इस तरह के मामलों में कड़ी कार्रवाई की जाए, ताकि दूसरे शिक्षक भी इससे सबक ले सकें।
