हर साल दिवाली से कुछ पहले ही प्रदूषण न बढ़ाने की अपील शुरू हो जाती है। तमाम सरकारी विज्ञापनों और संचार माध्यमों पर जागरूकता अभियानों के जरिए लोगों को समझाने की कोशिश की जाती है कि पटाखे सेहत को क्या-क्या नुकसान पहुंचाते हैं। मगर ये अपीलें और अभियान बेअसर ही साबित हुए हैं। हर साल दिवाली के बाद शहरों की हवा में हानिकारक रासायनिक तत्त्वों की उपस्थिति बढ़ी हुई दर्ज होती है। इस साल कई दिन पहले से टीवी चैनलों पर पटाखे चलाने के खतरनाक नतीजों पर बहसें दिखाई जाती रहीं। मगर दिवाली के दिन दिल्ली की हवा में प्रदूषण का स्तर सामान्य से नौ गुना अधिक दर्ज हुआ। कोलकाता और चेन्नई भी इस मामले में दिल्ली से होड़ करते नजर आए। यह स्थिति तब है जब पिछले कुछ सालों से थोड़े-थोड़े समय पर भारत के विभिन्न शहरों की आबो-हवा दिनोंदिन खराब होते जाने के आंकड़े आते रहे हैं। दुनिया भर में हो रहे अध्ययन बताते हैं कि भारत के शहर सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। इससे सामान्य दिनों में भी सांस संबंधी परेशानियां बढ़ रही हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञ चेतावनी देते रहते हैं कि वाहनों, उद्योग इकाइयों आदि से निकलने वाले धुएं में शामिल सल्फर डाइआॅक्साइड और नाइट्रोजन डाइआॅक्साइड जैसे खतरनाक रासायनिक तत्त्व फेफड़ों से होते हुए रक्त में प्रवाहित होने लगते हैं, जिससे कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियां पैदा होती हैं। ऐसे में जब वायु प्रदूषण कई गुना अधिक हो, तो भयावह असर की कल्पना की जा सकती है।

पटाखे छोड़ने वाले कोई मर्यादा नहीं रखते। बहुत-से पैसे वाले तो इस हद तक पटाखे चलाते हैं मानो यह उनके लिए अपनी आर्थिक हैसियत के प्रदर्शन का जरिया हो। यह कोशिश भी चली कि ज्यादा आवाज वाले पटाखे न बनें, पर दहला देने वाले पटाखे भी दिवाली के रोज रात भर छूटते रहे। सुबह कानों को भले राहत मिली हो, पर हवा का दमघोंटूपन दूसरे दिन भी जारी था। शायद यह असर कई दिन तक कायम रहे। त्योहार खुशियां मनाने का अवसर होते हैं, ये स्वास्थ्य के लिए परेशानी पैदा करने का सबब बनें तो इसे विडंबना ही कहना चाहिए। खुशियां बांटने के अनेक पारंपरिक तरीके हैं, आतिशबाजी के जरिए इसका प्रदर्शन कर दूसरों की परेशानी बढ़ाना किसी भी रूप में जागरूक और जिम्मेदार समाज का लक्षण नहीं कहा जा सकता। सरकार को इसके खिलाफ कठोर कदम उठाने से नहीं हिचकना चाहिए। कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि रात दस बजे के बाद पटाखे चलाने और आतिशबाजी पर पाबंदी होगी। इस नियम का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कड़े दंड का प्रावधान होगा। मगर इस नियम का पालन शायद ही कभी होता देखा गया। अगर आतिशबाजी से प्रदूषण पर काबू पाने की चुनौती विकट होती जा रही है, तो पटाखे बनाने, बेचने और चलाने पर ही क्यों न प्रतिबंध लगा दिया जाए। पटाखे पर पाबंदी का विचार कुछ लोगों को निजी आजादी पर अंकुश लग सकता है। पर स्वास्थ्य का अधिकार उससे ज्यादा बुनियादी है। दिवाली पर चीन आदि दूसरे देशों से पटाखे आयात किए जाने लगे हैं, जो देशी पटाखों से कहीं अधिक खतरनाक साबित हो रहे हैं। इस आयात की क्या जरूरत है? अगर यह आयात चोरी-छिपे हो रहा है, तो उसे रोका क्यों नहीं जा सकता? मोदी सरकार ने स्वच्छता अभियान शुरू किया है। अच्छी बात है। पर प्रदूषण पर अंकुश को इस अभियान की कसौटी क्यों नहीं बनाया गया है!