महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन हिंसक हो उठा है। तीन विधायकों के घरों और दफ्तरों में तोड़-फोड़ और आगजनी की गई। एक नगर पालिका परिषद के दफ्तर को भी आग के हवाले कर दिया गया। कई बसें जला दी गईं और रास्ते रोक दिए गए। अब इसे लेकर राजनीति भी गरम हो उठी है। बताया जा रहा है कि कुछ सांसदों और विधायकों ने इस्तीफा दे दिया है।
कुछ नेता सभी सांसदों से इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। हालांकि राज्य सरकार किसी तरह इस आंदोलन को शांत करने के प्रयास में जुटी है। उसने मराठा समुदाय के लोगों को कुनबी समुदाय का प्रमाणपत्र देने की पहल की है, मगर यह आंदोलन फिलहाल रुकता नहीं जान पड़ता। कुनबी समुदाय पिछड़ी जाति के अंतर्गत आती है।
इस तरह मराठा समुदाय को कुनबी का प्रमाणपत्र मिलने से वे भी अन्य पिछड़ी जाति को तय उन्नीस फीसद आरक्षण में हिस्सेदार बन जाएंगे। इसलिए महाराष्ट्र के अन्य पिछड़ा वर्ग का संगठन सरकार के इस फैसले का विरोध कर रहा है। यानी सरकार के सामने इस मामले में मुश्किलें दोहरी हैं। वहां कोई भी राजनीतिक दल न तो मराठा को नाराज करना चाहता है और न ओबीसी को अपने से दूर।
दरअसल, महाराष्ट्र ही नहीं, देश के अनेक राज्यों में आरक्षण की आग राजनीतिक दलों ने ही सुलगा रखी है। जब वे विपक्ष में होते हैं, तो किसी प्रभावशाली समुदाय को आरक्षण का लोभ देकर अपने सत्ता तक पहुंचने का रास्ता तैयार करते हैं और फिर सत्ता में आने के बाद उस वादे को पूरा करना उनके लिए मुश्किल हो जाता है।
महाराष्ट्र में मराठा समुदाय मूलत: खेतिहर समुदाय है और आर्थिक रूप से बहुत कमजोर स्थिति में है। काफी समय से वह नौकरियों और शिक्षा में अन्य पिछड़ी जातियों की तरह आरक्षण की मांग करता रहा है। पांच साल पहले राज्य सरकार ने उसे सोलह फीसद आरक्षण देने का फैसला भी कर लिया था। बांबे उच्च न्यायालय ने भी उसमें कुछ कटौती करते हुए उसे विशेष प्रावधान के तहत लागू करने की इजाजत दे दी थी।
मगर सर्वोच्च न्यायालय ने पचास फीसद की संवैधानिक सीमारेखा का हवाला देते हुए उस पर रोक लगा दी थी। ताजा मामले में मनोज जेरांगे-पाटिल नाम के एक व्यक्ति ने यह मांग उठाते हुए भूख हड़ताल शुरू कर दी कि मराठा समुदाय को कुनबी समुदाय माना जाए। उनके समर्थन में लोग जुटते गए। सरकार ने इसके लिए एक समिति बना दी और एक महीने के भीतर फैसला करने का आश्वासन दिया। मगर वह समय सीमा पार हो गई तो फिर से आंदोलन शुरू हो गया और अब हिंसक हो उठा है।
नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की मांग जिस तरह एक राजनीतिक हथियार बन गई है, उसमें हमेशा आशंका बनी रहती है कि कब कहां कोई नया समुदाय ऐसी मांग लेकर आंदोलन पर उतर आए। हरियाणा में जाट, गुजरात में पटेल और राजस्थान में गुर्जर समुदाय ऐसे आरक्षण की मांग लेकर अनेक बार सरकारों पर दबाव बनाने का प्रयास कर चुके हैं।
हालांकि हर राजनीतिक दल को पता है कि आरक्षण को लेकर कुछ संवैधानिक बाध्यताएं हैं, फिर भी वे अपने जनाधार का समीकरण साधने के मकसद से इसे हवा देते रहते हैं। महाराष्ट्र में भी मराठा समुदाय ऐसे ही आश्वासनों पर उम्मीद लगाए बैठा था। हालांकि महाराष्ट्र की राजनीति में मराठा समुदाय का प्रभाव अधिक है, मगर आरक्षण के मसले पर कोई व्यावहारिक रास्ता नहीं निकाला जा सका। अब मुश्किल यह है कि मौजूदा सरकार कैसे ओबीसी और मराठा दोनों को संतुष्ट करे।