बदलती जरूरतों के मुताबिक उसे नए संसाधनों से सुसज्जित भी किया जाता है। इस बात को एक बार फिर प्रधानमंत्री ने भी पुलिस महानिदेशकों और महानिरीक्षकों के सम्मेलन में रेखांकित किया। उन्होंने सुझाव दिया कि राज्य पुलिस बल और केंद्रीय एजंसियों के बीच सहयोग बढ़ाने की दिशा में काम किया जाना चाहिए।
प्रौद्योगिकी संसाधन अपनाने के साथ-साथ पैदल गश्त जैसी पारंपरिक प्रणाली को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। यह सुझाव ऐसे समय आया है, जब आपराधिक गतिविधियों पर नकेल कसना बड़ी चुनौती मानी जा रही है। हर साल अपराध के आंकड़े कुछ बढ़े हुए दर्ज होते हैं। हालांकि महिलाओं, बच्चों आदि के खिलाफ होने वाले अपराधों से संबंधित दंडात्मक प्रावधान कड़े किए गए हैं, पर उनका अपेक्षित असर नजर नहीं आ रहा।
आपराधिक गतिविधियों पर नजर रखने के लिए अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग होने लगा है, जिससे अपराध करने वालों की धर-पकड़ में तेजी आई है, मगर अपराध की दर फिर भी नहीं घट रही, तो इसे लेकर चिंता स्वाभाविक है। सूचनाओं के आदान-प्रदान को लेकर राज्यों की पुलिस और केंद्रीय बलों को तकनीकी रूप से परस्पर जोड़ने पर सहमति बहुत पहले बन गई थी, मगर अपराधियों, उपद्रवियों और अलगाववादी ताकतों के अंतरराज्यीय संजाल को तोड़ने में अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल पा रही है।
दरअसल, पुलिस आंतरिक सुरक्षा का बुनियादी ढांचा होती है। दूसरी सुरक्षा एजंसियों की अपेक्षा स्थानीय स्तर पर पुलिस की सक्रियता अधिक होती है, उसे हर गतिविधि का सूत्र पता होता है। ऐसे में अपेक्षा की जाती है कि अगर वह केंद्रीय बलों और दूसरे सुरक्षा बलों के साथ सूचनाओं का नियमित आदान-प्रदान करे, तो सीमा पार से या अंतरराज्यीय संजाल के तहत चलने वाली आपराधिक गतिविधियों को रोकने में बहुत आसानी होगी।
खासकर माओवादी और पूर्वोत्तर के अलगाववादी संगठनों की सजिशों को अंजाम देने से पहले ही खत्म किया जा सकता है। इस दिशा में काफी कुछ काम भी हुआ है, मगर अब भी पुलिस और दूसरी सुरक्षा एजंसियों के बीच संतोषजनक तालमेल नहीं दिखाई देता। इसकी एक वजह तो यह है कि कानून-व्यवस्था चूंकि राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र का विषय है, इसलिए वे केंद्रीय सुरक्षा बलों के साथ तालमेल बिठाने से कतराती हैं। इस तरह आतंकवाद, अलगाववाद से प्रभावित इलाकों में नजर रखने और तस्करी, हथियारों की आपूर्ति जैसी गतिविधियों पर अंकुश लगाने में कई तरह की दिक्कतें पेश आती हैं।
मगर सबसे अधिक आलोचना स्थानीय स्तर पर आपराधिक गतिविधियों को रोकने में पुलिस के कामकाज के तरीके को लेकर होती रही है। इसमें सुधार के लिए पुलिस सुधार संबंधी कई सिफारिशें आर्इं, मगर राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में उन पर अमल नहीं हो सका। यह भी छिपा तथ्य नहीं है कि सरकारें पुलिस का इस्तेमाल अपने पक्ष में करती हैं। इसलिए भी कई आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के खिलाफ उचित सख्ती नहीं बरती जा पाती।
फिर पुलिस का आम लोगों के साथ रिश्ता प्राय: मधुर नहीं देखा जाता, वह आम लोगों से दूरी बना कर और भय पैदा करके ही काम करना अधिक पसंद करती है। इसकी वजह से भी आम लोगों से अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाता और कई सूचनाएं दबी रह जाती हैं। पुलिस तंत्र को वास्तव में मजबूत बनाना है, तो सबसे पहले पुलिस सुधार संबंधी सिफारिशों को लागू करने और फिर संसाधनों और रणनीति के स्तर पर उसमें बदलाव का प्रयास होना चाहिए।