जहरीली शराब से लोगों के मरने की खबरें अक्सर आती रहती हैं और हर घटना के बाद प्रशासन और संबंधित सरकारी महकमे दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की बात कह कर अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ लेते हैं। मगर सच यह है कि इस तरह ऐसी त्रासदी की असल वजहों पर परदा डालने की कोशिश की जाती है। उत्तर प्रदेश के मलीहाबाद में सोमवार को एक बार फिर जहरीली शराब के कारोबार ने छब्बीस लोगों की जान ले ली और डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों को अलग-अलग अस्पतालों में भर्ती कराया गया है।
अब कुछ लोगों के नाम सामने आने पर आनन-फानन में छापे और गिरफ्तारी की कार्रवाई करके सरकार मान लेगी कि उसने समस्या पर काबू पा लिया है। लेकिन सवाल है कि मलीहाबाद के बड़े इलाके में जहरीली शराब का धंधा एक घरेलू उद्योग की तरह कैसे फैला हुआ था और उस पर नजर रखना किसकी जवाबदेही थी! खबरों के मुताबिक एक तरह से आबकारी महकमे और पुलिस के संरक्षण में ही आसपास के कई गांवों में करीब तीन दर्जन भट्ठियों में ऐसी जानलेवा शराब बनाई और बेची जा रही थी। अगर यह सच है तो ताजा घटना में लोगों के मारे जाने के लिए क्या आबकारी विभाग और स्थानीय पुलिस को कठघरे में खड़ा नहीं किया जाना चाहिए?
यों कानूनन नकली शराब बनाने वालों के खिलाफ सख्त सजा और भारी जुर्माने की व्यवस्था है। लेकिन अगर कभी ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार लोगों को पकड़ा भी जाता है तो शायद ही उनके खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई की जाती है। आमतौर पर सबूतों के अभाव और आबकारी कानूनों में कमजोर कड़ियों का फायदा उठा कर ज्यादातर आरोपी सजा पाने से बच निकलते और फिर उसी धंधे में लग जाते हैं। यह छिपा नहीं है कि नकली और मिलावटी शराब के शिकार अधिकतर लोग समाज के कमजोर तबके के होते हैं। फिर नकली शराब का कारोबार करने वाले अपने इलाके में दबंग पृष्ठभूमि और अच्छी-खासी राजनीतिक पहुंच वाले होते हैं।
तो क्या यही वजह है कि प्रशासन ऐसे लोगों के खिलाफ कड़े कदम उठाने से बचता, यहां तक कि कई बार उनसे मिलीभगत करते उनके बचाव में खड़ा हो जाता है? अगर कभी मामला अदालत में पहुंचता भी है तो ऐसे मामलों में न्याय के लिए वैसा मजबूत दबाव नहीं बन पाता, जैसा दूसरे हादसों और आपराधिक घटनाओं के बाद देखा जाता है। इसकी वजह यह हो सकती है कि शराब पीने को हमारे समाज में एक अवांछित आदत या आचरण माना जाता है। इसलिए जहरीली शराब से अगर लोग मारे भी जाते हैं तो अपराधियों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई करने को लेकर समाज अरुचि दिखाता है। मगर सवाल है कि क्या किसी भी स्थिति में लोगों की जान से खिलवाड़ करने वाले ऐसे कारोबार को छूट दी जानी चाहिए? दरअसल, शराब के नाम पर जहर बेचने वालों के खिलाफ कार्रवाई में लापरवाही बरतने की कुछ वजहें भी हैं।
मिलावटी शराब के कारोबारियों को अक्सर कुछ राजनीतिकों का संरक्षण मिला होता है। इसके अलावा, पिछले कुछ सालों के दौरान शराब की बिक्री राज्य सरकारों के लिए राजस्व का बड़ा जरिया बनती गई है। लेकिन सवाल है कि क्या राजस्व की यह आय लोगों की जान और सामाजिक नुकसान की कीमत पर हासिल की जाएगी? क्या इस क्षति का आकलन करना सरकारों को जरूरी नहीं लगता?
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