आखिरकार प्रधानमंत्री को अपने चंडीगढ़ दौरे के दौरान सुरक्षा इंतजामों के चलते वहां के लोगों को हुई परेशानियों की बाबत खेद जताने की जरूरत महसूस हुई। ट्वीट कर उन्होंने यह भी कहा कि चंडीगढ़वासियों को हुई असुविधा की जवाबदेही तय की जाएगी। यह लोगों की नाराजगी को देखते एक फौरी राजनीतिक भंगिमा भर है, या सचमुच इस बात की उम्मीद की जाए कि वीआइपी सुरक्षा का तौर-तरीका बदलेगा, इसके नाम पर की जाने वाली ज्यादतियों से अधिकारी बाज आएंगे और नागरिकों को राहत मिलेगी!

यह पहला मौका नहीं है जब वीआइपी सुरक्षा के प्रबंध किसी शहर के बाशिंदों के लिए तकलीफदेह साबित हुए हों। लंबे समय से यह सिलसिला चला आ रहा है। दौरा राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का हो, तो यह सारा इंतजाम चरम पर होता है। लेकिन चंडीगढ़ में यह पहली बार हुआ कि प्रधानमंत्री के दौरे के कारण उस रोज स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए। परीक्षाएं टाल दी गर्इं।

चंडीगढ़ जैसे महागनर में यातायात चंद मिनट भी बाधित हो, तो मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। अगर यह व्यवधान कई घंटों का हो, जैसा कि बीते शुक्रवार को हुआ, तो लोग कैसी सांसत में रहे होंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है। बस सेवा पूरी तरह अस्त-व्यस्त रही। मुर्दों को भी नहीं बख्शा गया। सेक्टर-पच्चीस स्थित शवदाहगृह को जाने वाली सड़कें बंद कर दी गर्इं। श्मशान परिसर को प्रधानमंत्री की रैली के पार्किंग स्थल में बदल दिया गया। वीआइपी सुरक्षा का ऐसा नजारा शायद ही पहले कहीं दिखा हो।

प्रधानमंत्री के अफसोस जता देने भर से मामला रफा-दफा नहीं हो जाता। अगर वे नागरिकों को हुई असुविधा को लेकर संजीदा हैं तो उन्हें वीआइपी सुरक्षा का रंग-ढंग बदलने की पहल करनी चाहिए। क्या भाजपा शासित राज्यों और जिन राज्यों में भाजपा सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल है, वहां से इसकी शुरुआत होगी? पंजाब की सरकार में भाजपा भी साझीदार है, और यह राज्य वीआइपी सुरक्षा के तामझाम में देश में पहले नंबर पर है।

राज्य में सरकारी खर्चे से सुरक्षा-सुविधा पाने वालों की सूची बहुत लंबी है और इसमें कई उद्योगपति और सेवानिवृत्त अफसर तक शामिल हैं। इसलिए हैरत की बात नहीं कि आम लोगों की हिफाजत में पुलिस की तैनाती घटती जाती है। कानून-व्यवस्था की एक खास समस्या यह है कि बड़ी संख्या में पुलिसकर्मी वीआइपी सेवा में लगा दिए जाते हैं, जिससे बाकी जिम्मेदारियों के लिए उनकी कमी हमेशा बनी रहती है। यह सही है कि अतिविशिष्ट लोगों की सुरक्षा के विशेष इंतजाम करने होते हैं।

लेकिन यह जिस अति पर जा पहुंचा है वह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था से मेल नहीं खाता, बल्कि औपनिवेशिक जमाने की याद दिलाता है। यह सार्वजनिक धन की बर्बादी भी है। इस पर सर्वोच्च अदालत ने कई बार सरकारों को फटकार लगाई। मगर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते कोई खास फर्क नहीं आया। अपने चंडीगढ़ दौरे के समय लोगों को हुई परेशानी पर दुख जता कर प्रधानमंत्री ने एक तरह से वीआइपी सुरक्षा के रंग-ढंग पर पुनर्विचार की जरूरत रेखांकित की है। क्या इसका क्रम शुरू होगा?

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