पीलीभीत फर्जी मुठभेड़ मामले में पच्चीस साल बाद सैंतालीस पुलिसकर्मियों को सजा सुनाया जाना विलंबित न्याय की मिसाल भले लगता हो लेकिन यह इस लिहाज से आशवस्तिकर है कि कानून के कथित रक्षकों को उनके जुर्म की सजा दिलाने में अंतत: हमारी न्याय व्यवस्था कामयाब हुई है। हालांकि यह मामला अभी ऊपरी अदालतों में जाएगा और वहां अंतिम फैसले के लिए अनिश्चितकालीन इंतजार करना होगा, मगर न्याय की पहली सीढ़ी पर मिली सफलता भी पीड़ित परिवारों के जख्मों पर मरहम सरीखी है। इस फैसले की अहमियत इस तथ्य से भी बढ़ जाती है कि किसी फर्जी मुठभेड़ के लिए इतनी बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों को सजा सुनाए जाने का देश में यह पहला मामला है। जुलाई 1991 की इस वारदात में पटना साहिब और कुछ अन्य धार्मिक स्थलों से तीर्थयात्रियों का एक जत्था लौट रहा था कि पुलिस ने उनकी बस से दस यात्रियों को जबरन उतार लिया और एक दिन बाद उनकी लाशें अलग-अलग जगहों पर पाई गर्ईं।
उन दिनों उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में कुछ आतंकवादी वारदातें हुई थीं, लिहाजा पुलिस ने उन सबको आतंकवादी बताते हुए मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था। हैरत की बात है कि पुलिस की इस करतूत की तब प्रशंसा भी हुई थी। लेकिन जब एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मई 1992 में मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी तो सारा सच सामने आ गया। सीबीआई ने गहन छानबीन के बाद सत्तावन पुलिसवालों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की थी, जिनमें से दस की मुकदमे के दौरान ही मौत हो गई थी। इस हत्याकांड का अत्यंत शोचनीय पहलू यह है कि महज पदोन्नति और पुरस्कार पाने के लिए दस निर्दोष तीर्थयात्रियों को मार डाला गया। अपने क्षुद्र स्वार्थ की वेदी पर इतने लोगों की बलि चढ़ा देना निश्चय ही इंसानियत को शर्मसार करने वाला अपराध है।
जिस पुलिस को रक्षक के तौर पर तैनात किया गया हो उसका यों भक्षक बन जाना बेहद अफसोसनाक है। इस पर विधि आयोग, कानूनविद और समाजशास्त्री लगातार चिंता जताते रहे हैं लेकिन फर्जी मुठभेड़ों की सूची लंबी होती गई है। इशरत जहां, बाटला हाउस आदि मामले तो मीडिया की वजह से चर्चा में आ गए मगर देश भर में पुलिसकर्मी जल्दी तरक्की या ईनाम पाने के लालच में फर्जी मुठभेड़ों और निर्दोषों को झूठे मामलों में फंसा कर मुजरिम साबित करने पर तुले रहते हैं। कानून के ये पहरेदार सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों तक को ठेंगा दिखाने से बाज नहीं आते। सुप्रीम कोर्ट ने मुठभेड़ों के संबंध में पुलिस को स्पष्ट दिशा-निर्देश दे रखे हैं।
इनमें मुठभेड़ में हुई हर मौत के मामले में एफआईआर दर्ज कर मजिस्ट्रेट से जांच को अनिवार्य बनाने, मुठभेड़ में शामिल पुलिसवालों को वीरता पुरस्कार न देने, मुठभेड़ का आधार बने सुरागों को रिकार्ड पर लेने, मानवाधिकार आयोग को सूचित करने जैसी अनेक हिदायतें शामिल हैं मगर उनका पालन शायद ही कहीं होता हो। मुठभेड़ों में लोगों की हत्याओं पर पुलिसिया तंत्र में कोई अपराध-बोध भी नजर नहीं आता, बल्कि वहां तो ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ को उलटे सम्मान और सराहना की नजरों से देखा जाता है। इन कथित‘स्पेशलिस्टों’ पर बनी फिल्मों ने भी समाज में मुठभेड़-महारथियों के प्रति आकर्षण बढ़ाया है। पीलीभीत कांड के मुजरिमों को सुनाई गई सजा के बरक्स क्या हमें भी ऐसे अपराधियों को नायक बनाने वाली अपनी मानसिकता से मुठभेड़ कर उसे बदलना नहीं चाहिए!