पश्चिम एशिया में शांति स्थापित करने की कोशिशों के तहत पिछले गुरुवार को संयुक्त अरब अमीरात और इजराइल के बीच जो ऐतिहासिक समझौता- अब्राहम अकॉर्ड हुआ है, उससे यह माना जा रहा है कि दशकों से इस क्षेत्र में उठती रही अशांति की लपटें अब बुझ जाएंगी। फिलस्तीन को लेकर इजराइल और अरब देशों के बीच जिस तरह के कटुतापूर्ण रिश्ते चले आ रहे थे, वे अब खत्म होंगे। अमेरिका के दखल से पांच दशक बाद फिर से संयुक्त अरब अमीरात और इजराइल के बीच राजनयिक संबंध बनने का रास्ता साफ हो गया है।

बड़ी उपलब्धि, जैसा कि दावा किया गया है, यह है कि इजराइल अपनी हठधर्मिता को छोड़ता हुआ वेस्ट बैंक में अपनी गतिविधियां रोक देने के लिए राजी हो गया है। जिस तरह से और जिस कठिन वक्त में यह समझौता हुआ है, वह एक कामयाबी तो बड़ी कही जा सकती है, लेकिन पश्चिम एशिया में शांति लाने की यह कवायद कितनी आगे बढ़ पाएगी, इसको लेकर भी अभी से सवाल खड़े होने लगे हैं।

फिलस्तीन का मुद्दा पिछले कई दशकों से पश्चिम एशिया का सबसे संवेदनशील और जटिल मुद्दा बना हुआ है। इजराइल ने 1967 में फिलस्तीन के वेस्ट बैंक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। उसके बाद से यहां भारी खून-खराबा होता रहा है। अरब देश फिलस्तीन के इस हिस्से पर इजराइली कब्जे के खिलाफ रहे हैं, लेकिन अमेरिका शुरू से इजराइल के साथ खड़ा रहा और उसका पुरजोर समर्थन करता आया है। वेस्ट बैंक इजराइल के पूर्वी हिस्से जॉर्डन की सीमा से लगा लगभग साढ़े छह हजार वर्ग किलोमीटर का इलाका है जिसमें चौबीस लाख से ज्यादा फिलस्तीनी रहते हैं और करीब चार लाख इजराइली यहूदी।

1948 में अरब और इजराइल के बीच लड़ाई में जॉर्डन ने इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया कर लिया था, लेकिन 1967 में इजराइल ने फिर से हमला कर इस इलाके पर कब्जा जमा लिया। तब से ही यहां इजराइल का नियंत्रण बना हुआ है। हैरानी की बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा, सुरक्षा परिषद, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय जैसे तमाम निकाय इजराइली कब्जे को अनुचित ठहराते रहे हैं और इसे जिनेवा संधि का भी उल्लंघन माना गया है। इसके बावजूद इजराइल इस इलाके से यहूदी बस्तियों को नहीं हटाने पर अड़ा रहा। खुद अमेरिका में इसे लेकर समय-समय पर विरोधी रुख सामने आते रहे।

तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर इजराइली कब्जे को गलत मानते थे, जबकि रोनाल्ड रेगन ने इसे सही ठहराया था। ओबामा इजराइली कब्जे के खिलाफ थे, तो ट्रंप इजराइल के साथ खड़े हैं। फिलस्तीन के मुद्दे पर अगर अमेरिका इसी तरह दोमुंही चालें चलता रहा, तो पश्चिम एशिया में शांति की उम्मीदें छोड़ देनी चाहिए।

पश्चिम एशिया में शांति के प्रयास आसानी से फलीभूत इसलिए भी नहीं हो सकते, क्योंकि यहां की राजनीति के केंद्र में अमेरिका है। एक तरफ मिनी अमेरिका यानी इजराइल है तो दूसरी तरफ इजराइल को नापसंद करने वाले अरब देशों का समूह है। इसलिए अब अमेरिका इस कोशिश में जुट गया है कि जिन अरब देशों के इजराइल के साथ राजनयिक रिश्ते बंद हैं, उन्हें शुरू कराया जाए और इसके पीछे उसका इरादा क्षेत्र में इजराइल की ताकत को बढ़ाना और ईरान की घेरेबंदी करना है।

वरना क्या इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू इतनी आसानी से वेस्ट बैंक में गतिविधियां बंद करने की बात मान सकते थे, जो पिछले कई दशकों में संभव नहीं हो पाया था। जैसा समझौता इजराइल ने अमीरात के साथ किया है, वैसे चार समझौते पूर्व में वह दूसरे देशों के साथ कर चुका है। लेकिन पश्चिम एशिया में शांति तब भी नहीं आ पाई। इसलिए ताजा समझौता वक्त की कसौटी पर खरा उतर पाएगा, इसमें संदेह है।