संसदीय समितियों से अपेक्षा की जाती है कि जिन विधेयकों पर सदन में सहमति न बन पाए, उन पर कानूनी दृष्टि से विचार-विमर्श कर सुझाव पेश करें। कई बार कुछ विधेयकों या कानूनों में संशोधनों पर विपक्ष आपत्ति उठाता और उन्हें संयुक्त संसदीय समिति में विचार की मांग करता है। ऐसा इसीलिए होता है कि संसदीय समितियों की निष्पक्षता पर सबको भरोसा होता है। संवैधानिक भावना यह है कि संसदीय समितियों को सत्तापक्ष के दबदबे से दूर रखा जाए, ताकि विचार के लिए आए विषयों पर तार्किक और निष्पक्ष ढंग से विचार हो सके।
मगर पिछले कुछ समय से जिस तरह संयुक्त संसदीय समितियों में हंगामे देखे गए हैं, उससे उनकी प्रासंगिकता पर ही सवाल उठने लगे हैं। वक्फ संशोधन विधेयक पर विचार कर रही संयुक्त संसदीय समिति में एक बार फिर हंगामा हुआ और उसके अध्यक्ष ने दस विपक्षी सांसदों को एक दिन के लिए निलंबित कर दिया। विपक्षी सांसदों का आरोप था कि अध्यक्ष सरकार के इशारों पर काम कर रहे हैं और वे विपक्ष को अपनी बात रखने का मौका ही नहीं देना चाहते। इसकी लिखित शिकायत भी उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष को भेजी है।
समिति को बजट सत्र में पेश करना है अपने सुझाव
दरअसल, सरकार ने वक्फ कानूनों में संशोधन का विधेयक तैयार किया है। उसके मुताबिक वक्फ के फैसलों को भी अदालत में चुनौती दी जा सकती है। फिर, कोई भी ऐसी जमीन, जिसे दान में नहीं दिया गया है और वहां मस्जिद या अन्य इबादतगाह बनाई गई है, तो उसे अवैध कब्जा माना जाएगा। दरअसल, इस संशोधन को लेकर मुसलिम धर्मगुरुओं, नेताओं और विपक्ष ने आशंका जाहिर की थी कि सरकार नए संशोधन कानून के जरिए वक्फ की संपत्ति पर कब्जा करना चाहती है। इसलिए सदन में बिना बहस के ही सरकार ने उस विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष विचार के लिए भेज दिया था।
समिति को अपने सुझाव बजट सत्र में पेश करना है। मगर जिस तरह समिति की बैठकें हंगामे की भेंट चढ़ती रही हैं, उससे नहीं लगता कि कोई सर्वमान्य फैसला हो पाएगा। इस संशोधन विधेयक के खिलाफ कई मुसलिम संगठन भी संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष विरोध जता चुके हैं। किसी संयुक्त संसदीय समिति में जब भी अध्यक्ष सत्तापक्ष का होता है, तो ऐसे विवाद की गुंजाइश बनी ही रहती है। वक्फ कानून वैसे भी संवेदनशील विषय है, इसलिए अगर इस पर राजनीतिक नफे-नुकसान के मद्देनजर विचार रखे जाएंगे, तो उनके निष्पक्ष रहने का दावा नहीं किया जा सकता।
संयुक्त संसदीय समितियां दिखावा भर रह जाएगी
सरकार के पिछले कार्यकाल के वक्त भी संसदीय समितियों के गठन और उनके अध्यक्षों की नियुक्ति को लेकर खासा विवाद उठा था। जिन समितियों के अध्यक्ष पद पर सत्तापक्ष के किसी सांसद को नहीं नियुक्त किया जाना चाहिए, उन पर भी सत्तापक्ष काबिज हो गया था। तब भी संसदीय समितियों की प्रासंगिकता पर सावल उठे थे। संयुक्त संसदीय समिति में हर दल और पक्ष के लोग रखे ही इसलिए जाते हैं, कि वहां किसी विवादित विषय पर हर कोण से विचार-विमर्श हो सके और एक सर्वमान्य, सर्वहितकारी कानून बनाया जा सके।
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मगर शायद यह मकसद अब गौण मान लिया गया है और इन समितियों को भी राजनीतिक रस्साकशी का मंच बना दिया गया है। इसे लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। अध्यक्ष और विपक्षी दलों को भी आपसी सहमति बनाने की कोशिश करनी चाहिए, वरना संयुक्त संसदीय समितियां एक दिखावा भर बन कर रह जाएंगी।