जब भी संसद का सत्र शुरू होता है, सर्वदलीय बैठक बुला कर आपसी सहमति और सहयोग से कार्यवाही चलाने का संकल्प लिया जाता है। मगर, पिछले कुछ समय से संसद का कामकाज हंगामे की भेंट चढ़ जा रहा है। किसी मसले पर विपक्ष बहस की मांग करता है और सभापति की मंजूरी न मिल पाने के बाद हंगामे का सिलसिला चल पड़ता है। पूरा का पूरा सत्र बिना किसी सार्थक बहस और विधेयकों पर जरूरी चर्चा के बगैर समाप्त हो जाता है।

अडाणी मामले पर बहस कराना चाहता है विपक्ष

चालू सत्र में भी पहले ही दिन से हंगामा चल रहा है। विपक्ष अडाणी मामले पर बहस कराना चाहता है, मगर दोनों सदनों में इसकी इजाजत नहीं मिल पा रही। अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि विपक्ष ने राज्यसभा के सभापति यानी उपराष्ट्रपति के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रख दिया है। उसका कहना है कि सभापति विपक्ष को बोलने का मौका नहीं देते, वे अपनी मर्जी से बहसों को रेकार्ड में लेते या नहीं लेते हैं।

राज्यसभा के सभापति को हटाने की मांग

सत्तापक्ष के लोगों को बोलने का अधिक अवसर देते हैं, आदि। यह बहत्तर वर्षों के संसदीय इतिहास में पहला मौका है, जब इस तरह राज्यसभा के सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया है, उन्हें हटाने की मांग उठी है।

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ऐसा नहीं कि पहले विपक्ष के नेता किसी सदन के सभापति से असंतुष्ट नहीं होते थे। उन पर पक्षपात के आरोप नहीं लगाते थे। पहले भी ऐसा होता रहा है, मगर तब कटाक्ष, तल्ख बयान और बहसों के बाद मामले सुलझा लिए जाते थे। सदन की मर्यादा का निर्वाह किया जाता था। मगर पिछले कुछ समय से शायद इस तकाजे को कोई समझना नहीं चाहता।

मानसून सत्र में लोकसभा अध्यक्ष ने संसदीय मर्यादा का पढ़ाया था पाठ

मानसून सत्र में विपक्षी दल के कई नेताओं ने लोकसभा अध्यक्ष को संसदीय मर्यादा और उनके पद की गरिमा का पाठ पढ़ाया। खूब कटाक्ष किए, मगर कोई फर्क नहीं पड़ा। विपक्ष का आरोप है कि सरकार खुद हंगामा खड़ा करके सदन के कामकाज में बाधा डाल रही है। वह चाहती ही नहीं कि संसद में किसी मुद्दे पर बहस हो।

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दरअसल, संसदीय कार्यवाही को सुचारु रूप से चलाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती है। अगर किन्हीं स्थितियों में विपक्ष का रुख अधिक आक्रामक हो जाता है और सदन की कार्यवाही में बाधा पड़ती है, तो संसदीय कार्यमंत्री सुलह-समझौते से गतिरोध दूर करने का प्रयास करते हैं। मगर लंबे समय से दोनों सदनों के कामकाज बाधित हैं और सरकार की तरफ से कोई ऐसा प्रयास नजर नहीं आता।

सदन के सभापति की भूमिका निर्णायक

अपेक्षा की जाती है कि जरूरी मसलों पर संसद के भीतर बहस हो और सर्वसम्मति से कोई फैसला किया जा सके। मगर पिछले कुछ समय से संसद में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच मूंछ की लड़ाई अधिक दिखाई देती है, बहसें विपक्ष संसद से बाहर करता है। पिछली सरकार के समय तो दोनों सदनों के डेढ़ सौ से ऊपर विपक्षी सदस्यों को निलंबित कर दिया गया। इस तरह कई मसलों पर आम लोगों के बीच भ्रम की स्थिति बनी रहती है।

ऐसी स्थितियों में सदन के सभापति की भूमिका निर्णायक हो जाती है, उनसे उम्मीद की जाती है कि बिना किसी दलगत आग्रह के, राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर चर्चा कराएं और सरकार उस आधार पर उचित कदम उठाए। मगर न तो लोकसभा में और न राज्यसभा में ऐसी लोकतांत्रिक परंपरा दिखाई दे रही है। आखिर इस गतिरोध को दूर करने की जिम्मेदारी कौन निभाएगा और कैसे भरोसा किया जाए कि संसद में कामकाज ठीक से चल सकेगा।