संसद के मानसून सत्र के पहले ही दिन दोनों सदनों में सत्ता और विपक्ष के बीच खींचतान के बाद जैसा हंगामा देखा गया, वह एक तरह से अपेक्षित था। जिस तरह लोकसभा की कार्यवाही स्थगित करने की नौबत आई, उससे एक बार फिर यही लगता है कि जनहित से जुड़े मसलों पर बातचीत के बजाय संसद अब सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच टकराव की जगह बनती जा रही है। विपक्ष को लगता है कि सरकार अपनी सुविधा के मुताबिक सदन में बहस के लिए मुद्दों का चुनाव करती है और ऐसे में जनहित तथा राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों की उपेक्षा की जाती है, वहीं सरकार यह मानती है कि विपक्ष नाहक ही सदन को बाधित कर जरूरी कामकाज में अड़चन डालता है।

इसमें दोराय नहीं कि जब तक किसी मुद्दे पर लोकसभा या राज्यसभा में बहस नहीं होगी, तब तक जनहित के सवाल उपेक्षित रहेंगे, लेकिन इस क्रम में ऐसी स्थिति पैदा होने को कैसे सही ठहराया जा सकता है कि सदन में विचार-विमर्श के बजाय एकतरफा बातचीत होने लगती है और उसी के आधार पर नियम-कायदे भी तय हो जाते हैं।

सरकार और विपक्ष संसद में आमने-सामने

गौरतलब है कि करीब एक महीने तक चलने वाले मानसून सत्र में विपक्ष की ओर से मुख्य रूप से पहलगाम हमले, आपरेशन सिंदूर, संघर्ष विराम में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के मध्यस्थता के दावों, बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण, मणिपुर के हालात और चीन के रुख आदि मसलों पर चर्चा कराने पर जोर दिया गया। हालांकि सरकार ने दावा किया कि वह इन सभी मुद्दों पर चर्चा के लिए तैयार है। अगर ऐसा है तो यह समझना मुश्किल है कि फिर खींचतान और हंगामे के हालात यहां तक कैसे पहुंचे कि सदन को स्थगित करने की नौबत आई। सरकार और विपक्ष के बीच संसद में आमने-सामने की बहस और सवाल-जवाब एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।

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अगर सरकार को लगता है कि वह विपक्ष की मांग के मुताबिक सभी विषयों पर बहस के लिए तैयार है, तब आखिर संसद में हंगामे की नौबत क्यों आती है? क्या ऐसा बीच का रास्ता नहीं निकल सकता जिसमें सदन बाधित न हो और संसद का कामकाज सुचारु रूप से चले? विपक्ष अगर चर्चा की मांग करता है, तो सदन को सामान्य रूप से संचालित होने देना और जरूरी मुद्दों पर बहस को लोकतांत्रिक निष्कर्ष तक ले जाना आखिर किसकी जिम्मेदारी है?

बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण पर होनी चाहिए बात

देश और नागरिकों के हित से जुड़े व्यापक महत्त्व के सवालों पर लोकसभा और राज्यसभा में चर्चा नहीं होगी तो और कहां होगी? मगर सरकार और विपक्ष जिन मुद्दों पर टकराव की मुद्रा में आ जाते हैं, उसमें यह कैसे तय होगा कि किस सवाल को बहस की प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए? सही है कि पहलगाम में हुआ आतंकी हमला और उसके बाद की परिस्थितियां राष्ट्रीय महत्त्व का मसला है। इसी तरह बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण पर जिस तरह के सवाल उठे हैं, उस पर भी तत्काल बात होनी चाहिए।

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मणिपुर में भी लंबे समय से जिस तरह हिंसा के हालात बने हुए हैं, उसका समाधान भी तुरंत खोजने की जरूरत है। मगर क्या सदन में इसके लिए कोई प्रक्रिया निर्धारित है? विडंबना है कि हंगामे की शोर में जरूरी मुद्दों पर बहस नहीं हो पाती और सदन स्थगित हो जाता है। इस संदर्भ में सदनों की कार्यवाही पर एक दिन के खर्च और उसके बेकार जाने के मसले पर भी काफी सवाल उठते रहे हैं। ऐसे में सरकार और विपक्ष को मिल कर यह सोचने की जरूरत है कि बाधित सदन में जनहित के सवालों के लिए कितनी जगह बची है।