वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को लेकर दुनिया भर में छाई चिंता के इजहार के साथ पेरिस सम्मेलन सोमवार को शुरू हो गया। इसमें तमाम देशों के राष्ट्राध्यक्षों, अनेक क्षेत्रों के विशेषज्ञों, पर्यावरणविदों, पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले संगठनों के प्रतिनिधियों समेत हजारों लोग भाग ले रहे हैं। इस सम्मेलन की अहमियत खासकर दो कारणों से है। एक यह कि ग्लोबल वार्मिंग पर वैश्विक वार्ताओं के बीस साल के इतिहास में यह पहला मौका है जब कॉर्बन उत्सर्जन में कटौती को लेकर कोई ऐसा करार हो सकता है जो सबके लिए बाध्यकारी हो। फिर, ग्लोबल वार्मिंग से निपटने में 2020 के साल को एक विभाजक रेखा माना गया है। अभी तक जो घोषित प्रतिबद्धताएं हैं उनकी मियाद पांच साल बाद पूरी हो जाएगी। उसके बाद की कार्य-योजना के लिहाज से भी पेरिस सम्मेलन का खासा महत्त्व है। विशेषज्ञ बार-बार आगाह कर चुके हैं कि कॉर्बन उत्सर्जन नहीं घटाया गया, तो दुनिया ऐसे संकट में फंस जाएगी जहां से पीछे लौटना संभव नहीं होगा। इसके कुछ लक्षण दिखने भी लगे हैं। मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव हो रहे हैं। जलवायु में असामान्य बदलाव नजर आ रहा है। तमिलनाडु में पिछले दिनों हुई बेमौसम की भारी बरसात इसकी एक छोटी-सी झलक है। उत्तराखंड के जल-प्रलय, जम्मू-कश्मीर की बाढ़ और आंध्र के चक्रवात से लेकर ऐसे बहुत-से उदाहरण गिनाए जा सकते हैं। पहले भी प्राकृतिक आपदाएं आती थीं, पर अब उनका सिलसिला बढ़ गया है। इससे भी भयावह संकट आ सकते हैं जिनकी कल्पना ही डरावनी है। ग्लेशियर पिघल कर जल-प्रलय की हालत पैदा कर सकते हैं। समुद्र की सतह ऊपर उठ सकती है जिससे इसके किनारे के नगरों-महानगरों और द्वीपीय देशों के सामने वजूद का संकट खड़ा होगा।

इस सबसे विस्थापन की इतनी बड़ी समस्या खड़ी होगी और प्राकृतिक संसाधनों के लिए टकराव की ऐसी स्थिति आएगी, जो दुनिया के इतिहास में अपूर्व होगी। इसलिए कॉर्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लक्ष्य को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। यह अच्छी बात है कि इस मसले पर अब विकसित बनाम विकासशील मोर्चाबंदी पहले के मुकाबले काफी कम हो गई है। यह इस बात का संकेत है कि दुनिया भर में जलवायु संकट का अहसास गहरा हुआ है, अब उसकी बात हल्के ढंग से नहीं की जा सकती। सितंबर में टिकाऊ विकास लक्ष्यों को लेकर हुए वैश्विक करार से भी यह जाहिर है। फिर, कोपेनहेगन शिखर सम्मेलन के बाद के इन छह वर्षों में हरित ऊर्जा की तकनीक बेहतर हुई है और उसने लागत को भी घटाया है। फिर भी, पिछले कई सम्मेलनों से चला आ रहा एक अहम मसला पेरिस सम्मेलन के सामने भी होगा, वह यह कि कुल कॉर्बन उत्सर्जन में कमी लाने की कवायद में गरीब देशों की किस तरह मदद की जाए। भारत अपने इस रुख को दोहराता आया है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी सबकी साझा जिम्मेदारी है, पर इस मामले में विकसित देशों की जिम्मेदारी अधिक है, क्योंकि औद्योगिक क्रांति के बाद से लगातार उनका कॉर्बन उत्सर्जन सबसे ज्यादा रहा है। उनके इस रिकार्ड का तकाजा यह है कि विश्व के कुल कॉर्बन उत्सर्जन का स्तर नीचे लाने में वे ज्यादा योगदान करें। देखना है कि पेरिस सम्मेलन उम्मीदों पर कितना खरा उतरता है!