मरीजों का पहला भरोसा अपने चिकित्सक और उसकी लिखी दवाइयों पर होता है। कई दफा वह डाक्टर से बिना परामर्श किए दवाएं खरीद लेता है। ये दवाइयां आम चलन में होती हैं। इनमें पेट दर्द, सर्दी, खांसी और बुखार आदि की दवाएं आम हैं। मगर केंद्रीय औषधि नियंत्रण संगठन के हालिया गुणवत्ता परीक्षण में जिस तरह पचास से ज्यादा दवाइयों के नाकाम होने की खबर आई है, उससे साफ है कि इन दवाओं का सेवन जोखिम से भरा है। जांच में आम इस्तेमाल में आने वाली पैरासिटामोल, पैन डी, कैल्शियम और विटामिन डी की गोलियों के अलावा मधुमेह रोधी समेत पचास से अधिक दवाओं में कई कमियां पाई गईं, उन्हें ‘मानक गुणवत्ता से रहित’ बताया गया।
जिन दवाइयों के किसी खास बीमारी का इलाज होने का दावा किया जा रहा था, उन्हें खतरे के वाहक के रूप में कैसे बेचा जाता रहा? पिछले महीने एक सौ छप्पन दवाओं पर रोक लगा दी गई थी जो एंटीबायोटिक्स, मल्टीविटामिन, दर्दनिवारक और सर्दी एवं बुखार में प्रयोग में लाई जा रही थीं। तब कहा गया था कि इसके इस्तेमाल से स्वास्थ्य को खतरा पैदा हो सकता है।
दवा कंपनियों से मांगा गया जवाब
सवाल है कि जो दवाएं परीक्षण में नाकाम बताई गई हैं, अब तक उनका सेवन कितने लोग कर चुके होंगे और क्या उससे उनकी सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ा होगा! आए दिन गुणवत्ता से संबंधित जांच में दवाओं के नमूने फेल होते रहे हैं। हालांकि दवा कंपनियां ऐसे निष्कर्षों को बहुत तरजीह देने की जरूरत नहीं समझती हैं। अब एक बार फिर जांच के दायरे में रखी गई दवाओं को बनाने वाली कंपनियों से जवाब मांगा गया है और गुणवत्ता के अनुकूल साबित नहीं होने के बाद इनके इस्तेमाल को लेकर आम लोगों को सतर्क किया गया है।
मगर चिंता की बात यह है कि गुणवत्ता की कसौटी पर किसी दवा के फेल होने या घोषित रूप से उसकी बिक्री प्रतिबंधित कर दिए जाने के बावजूद वैसी दवाएं बाजार में कैसे उपलब्ध होती हैं! सच यह है कि दवा दुकानों पर उसकी बिक्री को लेकर जमीनी स्तर पर शायद ही कोई रोकटोक होती है। समय-समय पर दवाओं के खतरनाक असर को लेकर अध्ययन सामने आते रहे हैं। ऐसे में इसका सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है कि गुणवत्ता से रहित दवाइयों के दुष्परिणामों से कितने लोग प्रभावित हो रहे होंगे।