Pahalgam Attack: पहलगाम आतंकी हमले और उसमें जान गंवाने वालों के परिजनों का दुख समूचा देश महसूस कर रहा है और आतंकियों के खिलाफ सबमें आक्रोश है। सभी यही चाहते हैं कि आतंकवादियों और उन्हें संरक्षण देने वालों के विरुद्ध सख्त से सख्त कार्रवाई हो। मगर व्यापक स्तर पर ऐसी भावनाएं अगर अनियंत्रित होने लगें और उसकी मार ऐसे लोगों पर पड़ने लगे, जिनका आतंकवाद से कोई लेना-देना न हो, तो वाजिब दुख और आक्रोश की दिशा भटक जाना स्वाभाविक है।

पहलगाम आतंकी हमले के बाद आक्रोश

पहलगाम आतंकी हमले के बाद आक्रोश के नतीजे में एक अफसोसनाक प्रतिक्रिया यह देखी गई कि कई जगहों पर बिना किसी वजह के मुसलिम पहचान वाले लोगों को उनका नाम पूछ कर निशाना बनाया गया, उनके साथ मार-पीट गई या उनके व्यवसाय को नुकसान पहुंचाया गया। यह न केवल भावुकता के दिशाहीन हो जाने का सबूत, बल्कि देश की कानून-व्यवस्था के सामने एक गंभीर चुनौती भी है। सवाल है कि क्या इस तरह की प्रतिक्रिया देश की लोकतांत्रिक परंपरा के सामने चुनौती नहीं खड़ी कर रही है।

‘अब तो तेज आवाज से भी डर लगता है…’, पहलगाम हमले में जान गंवाने वाले शुभम की पत्नी ने सरकार से की भावुक अपील

पहलगाम हमले में जान गंवाने वाले लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की पत्नी ने अपने पति के लिए न्याय और आतंकियों के लिए सजा सुनिश्चित करने की मांग जरूर की है, लेकिन उन्होंने सिर्फ आक्रोश की वजह से निर्दोष लोगों को निशाना बनाने और नफरत भरे बयान देने की प्रवृत्ति पर अपनी आपत्ति जाहिर की। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लोगों से सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने और मुसलमानों या कश्मीरियों को निशाना न बनाने तथा सिर्फ शांति की अपील की। अपने ऊपर दुख का पहाड़ टूटने के बावजूद उन्होंने जिस तरह अपनी संवेदना और अपने धैर्य को संतुलित बनाए रखा, वह मानवीय मूल्यों के प्रति उनकी आस्था को दर्शाती है।

जम्मू-कश्मीर में पिछले कई दशक से आतंकवादियों ने जो किया है, उसका मुकम्मल और ठोस हल निकालने की जरूरत है, चाहे इसके लिए कानूनी दायरे में हर स्तर पर सख्ती बरतनी पड़े। मगर आतंकियों की हरकतों की प्रतिक्रिया में अगर आम लोग उत्तेजना में निर्दोष नागरिकों के खिलाफ अराजक होने लगें, तो यह न केवल मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों के विपरीत होगा, बल्कि देश के लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और सौहार्द की परंपरा को भी नुकसान पहुंचाएगा।