मध्याह्न भोजन योजना के तहत दूषित या विषाक्त भोजन खाने से बच्चों के बीमार होने के मामले अक्सर सामने आते रहे हैं लेकिन इनकी पुनरावृत्ति न हो, इस दिशा में प्रयास नदारद ही रहे हैं। ताजा मामला उत्तर प्रदेश के बलिया जिले का है जहां एक प्राथमिक विद्यालय में ‘मिड डे मील’ खाने के बाद बच्चों को उलटी-दस्त की शिकायत हुई और उन्हें जिला अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। इस मामले में हालांकि स्कूल की प्रधानाध्यापिका और ग्राम प्रधान के खिलाफ नामजद मुकदमा दर्ज कराया गया है, लेकिन क्या स्कूलों में परोसे जाने वाले भोजन के निरापद और स्वास्थ्यकर होने की गारंटी की जा सकती है? ऐसे मामलों में निलंबन, बर्खास्तगी या मुकदमा दर्ज कराने जैसी कार्रवाइयां अक्सर तदर्थ ही साबित हुई हैं और कुछ समय बाद सब पुराने ढर्रे पर चलता रहता है।
देश का कोई राज्य ऐसा नहीं है जहां से मिड-डे मील में गड़बड़ियों की खबरें न आई हों। इन सभी मामलों में सरकारों से लेकर स्थानीय प्रशासनिक अमले की तरफ से हर बार दोषियों पर कड़ी कार्रवाई की बातें तो कही जाती रहीं मगर यह एलान कभी नहीं किया गया कि भविष्य में इस भोजन के दूषित या विषाक्त न होने के पुख्ता इंतजाम किए जाएंगे। बिहार के सारण जिले में तो जुलाई 2013 में एक प्राथमिक विद्यालय में जहरीला भोजन खाने से तेईस बच्चे मौत के मुंह में चले गए थे। इतनी बड़ी संख्या में नौनिहालों की मौत के बाद इस योजना की गहन समीक्षा और इसमें सुधार के वादे किए गए, लेकिन मृतकों के परिवारों को दो-दो लाख रुपए मुआवजा देने की घोषणा के बाद सब भुला दिया गया। आखिर कितने मासूमों की सेहत और जिंदगी से खिलवाड़ के बाद केंद्र और राज्य सरकारें इस योजना में सुधार के लिए सक्रिय होंगी?
यह योजना शुरुआत से ही अपने नेक मकसद के बावजूद अनेक बुनियादी खामियों की शिकार रही है। ये खामियां सरकार के स्तर पर जहां अपर्याप्त राशि के आबंटन, गुणवत्ता की उपेक्षा से लेकर निगरानी और जवाबदेही के अभाव तक फैली हैं, वहीं कार्यान्वयन के मामले में भ्रष्टाचार की गिरफ्त, मिलावटी या खराब खाद्य सामग्री, भोजन पकाने-परोसने में स्वच्छता की उपेक्षा आदि तक पसरी हुई हैं। बीस साल पहले शुरू हुई इस योजना में कक्षा एक से पांच तक के सरकारी स्कूलों के छात्रों को हफ्ते में चार दिन चावल और दो दिन गेहूं से बना भोजन दिए जाने का प्रावधान है, जिसमें प्रति छात्र कम से कम से कम 450 कैलोरी ऊर्जा और बारह ग्राम प्रोटीन होना चाहिए।
इसमें हर दिन के लिए खाने का ‘मेन्यू’ भी निर्धारित है लेकिन उस पर शायद ही कभी अमल किया जाता है। इसकी सबसे बड़ी वजह प्रति छात्र भोजन के लिए कम राशि का आबंटन है। आखिर आसमान छूती महंगाई के दौर में एक छात्र को चार से पांच रुपए में पका हुआ पौष्टिक भोजन कैसे मुहैया कराया जा सकता है? मध्याह्न भोजन योजना मेंं घटिया सब्जियां, चावल, दाल, गेहूं आदि खपा देने की शिकायतों के बीच संसदीय समिति और सुप्रीम कोर्ट तक अपर्याप्त राशि के आबंटन पर नाराजगी जता चुके हैं, लेकिन अभी तक कुछ नहीं किया गया है। एक जनकल्याणकारी योजना की गड़बड़ियों की ऐसी अनदेखी एक उदाहरण भर है कि कमजोर तबकों के प्रति हमारी राज्य-व्यवस्था का सलूक कैसा है।