आखिरकार गुलबर्गा सोसायटी मामले में अदालत ने गुरुवार को अपना फैसला सुना दिया। फैसले को लेकर असंतोष की गुंजाइश शायद बनी रहेगी, जैसा कि पीड़ित पक्ष का चेहरा मानी जाने वाली जकिया जाफरी की प्रतिक्रिया से भी लगता है। पर अगर सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप न रहा होता, तो सारी कार्यवाही न्याय का मखौल साबित हो सकती थी। अमदाबाद की अदालत ने गुरुवार को दिए अपने फैसले में इस हत्याकांड के लिए चौबीस लोगों को दोषी ठहराया है। छियासठ आरोपियों में से छत्तीस को अदालत ने बरी कर दिया, जिनमें भाजपा के एक पार्षद भी शामिल हैं। चौबीस दोषी ठहराए गए लोगों में से अदालत ने ग्यारह को हत्या का दोषी पाया है और तेरह को उससे कम के अपराध का। छह आरोपियों की मौत हो चुकी है। आम धारणा रही है कि यह हत्याकांड सुनियोजित था।
अक्टूबर 2007 में एक स्टिंग आॅपरेशन ने इस कांड की तैयारी की बाबत कुछ लोगों की आपसी बातचीत का खुलासा किया था। पर अदालत ने किसी को भी षड्यंत्र का दोषी नहीं ठहराया है, क्योंकि इसके लिए अदालत की निगाह में पर्याप्त सबूत नहीं थे। तो क्या यह जांच और अभियोजन की कमजोरी मानी जाएगी? अट्ठाईस फरवरी 2002 को हजारों की हिंसक भीड़ ने गुलबर्गा सोसायटी पर हमला बोल दिया था। मारे गए उनहत्तर लोगों में कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी भी थे। नरोदा पाटिया, बेस्ट बेकरी, सरदारपुरा जैसी इस तरह की और भी भयानक घटनाएं हुई थीं। इन घटनाओं को रोक न पाने के लिए तो तत्कालीन राज्य सरकार पर तोहमत लगी ही, उस पर यह आरोप भी लग रहा था कि उसकी दिलचस्पी आरोपियों को बचाने में है, इसलिए सबूतों तथा अभियोजन की प्रक्रिया को कमजोर करने की कोशिश हो रही है।
इस प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर संदेह जताने वालों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी था। आखिरकार आयोग और गैर-सरकारी संगठन सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए, जिनमें जांच सीबीआई को सौंपने और मुकदमे राज्य से बाहर चलाने की मांग की गई थी, सर्वोच्च अदालत ने गुलबर्गा सोसायटी, नरोदा पाटिया, सरदारपुरा जैसे दस बड़े हत्याकांडों से जुड़े मामलों की न्यायिक प्रक्रिया फौरन रोक देने का आदेश दिया, और राज्य सरकार से कहा कि वह इन मामलों की जांच के लिए एसआइटी यानी विशेष जांच टीम गठित करे। सीबीआइ के पूर्व निदेशक आरके राघवन की अध्यक्षता में एसआइटी गठित की गई जिसने मामलों की नए सिरे से जांच शुरू की। अलबत्ता एसआइटी की कार्यप्रणाली पर भी समय-समय पर सवाल उठे।
एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट मई 2010 में सर्वोच्च अदालत को सौंपी। खुद सर्वोच्च अदालत की ओर से नियुक्त गए एमिकस क्यूरी यानी न्यायमित्र ने उस रिपोर्ट पर कई सवाल उठाए थे। अदालत ने एसआइटी से उन संदेहों का निराकरण करने को कहा। फिर एसआइटी ने और भी ब्योरों के साथ अपनी अंतिम रिपोर्ट मार्च 2012 में सौंपी। गुलबर्गा सोसायटी हत्याकांड का फैसला चौदह साल बाद आया है। गुजरात दंगों के और भी कई मामलों में फैसला आना बाकी है। इतने लंबे समय में जांच की निष्पक्षता पर शक जताने, सबूतों को कमजोर करने के आरोपों और कई मामलों में गवाहों के मुकरने आदि की लंबी कहानी है। इन अनुभवों ने भी रेखांकित किया है कि पुलिस को राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त रखने की संस्थागत व्यवस्था की जाए, जैसी कि सिफारिश सोली सोराबजी समिति ने की थी।