उत्तराखंड के हल्द्वानी में सरकारी जमीन पर से अतिक्रमण हटाने की कोशिश में जिस तरह हिंसा भड़क उठी और बड़े पैमाने पर पुलिसकर्मियों के घायल होने तथा हिंसा पर उतारू भीड़ पर गोली चलाने से चार लोगों के मारे जाने की खबर आई, उससे अतिक्रमण रोकने के सरकारी प्रयासों पर एक बार फिर गहरा सवालिया निशान लगा है।
गौरतलब है कि हल्द्वानी के एक इलाके में सरकारी भूखंड पर कथित रूप से कब्जा कर मजार और मदरसा बना लिया गया था। उसे हटाने के लिए पुलिस और नगर निगम के कर्मचारी वहां पहुंचे तो स्थानीय लोग उग्र हो उठे और पुलिस पर पथराव करना शुरू कर दिया। अब स्थिति यह है कि पूरे शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया है। वहां स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है।
इस बात की जांच होनी चाहिए कि भीड़ के उग्र और हिंसक होने के पीछे क्या कोई साजिश है! इसी तरह पिछले वर्ष जनवरी में भी हल्द्वानी के ही एक इलाके में रेलवे की जमीन पर कब्जा कर बसी एक बस्ती को हटाने का अभियान चलाया गया था। तब भी खासा हंगामा हुआ। अतिक्रमण हटाने के विरोध में लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और उस मामले को मानवीय करार देते हुए अदालत ने बेदखली पर रोक लगा दी थी। हल्द्वानी में और भी ऐसी जगहें हैं, जहां लोगों ने अतिक्रमण कर बस्तियां या मकान-दुकान बना ली है।
पिछले वर्ष भी वन विभाग, रेलवे और राजस्व विभाग के भूखंडों पर से अवैध कब्जा हटाने का अभियान चलाया गया था। पता चला कि कई जगहों पर भूमाफिया ने सौ और पांच सौ रुपए के स्टांप पर लोगों को सरकारी जमीन बेच दी थी। उन पर लोग घर बना कर रह रहे हैं। उनमें से ज्यादातर स्थानीय निवासी नहीं हैं। वे वहां मजदूरी वगैरह करने के लिए गए थे।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकारी भूखंड पर किसी को अवैध रूप से कब्जा कर रिहाइश या कोई कारोबारी भवन बनाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। मगर यह सवाल अपनी जगह है कि प्रशासन और सरकार को तभी ऐसी जगहों को खाली कराने की सुध क्यों आती है, जब लोग वहां बस्तियां बसा चुके होते हैं। देश का शायद ही कोई ऐसा शहर हो, जहां अवैध रूप से कायम की गई बस्तियां आबाद न हों। ये बस्तियां कोई एक दिन में या रोतोंरात तो बस नहीं जातीं। कहीं-कहीं तो लोग दावे करते हैं कि वे पचास-पचास वर्ष से रह रहे हैं।
सरकारी भूखंडों पर कब्जे की प्रवृत्ति पुरानी और उजागर है। इसके पीछे सक्रिय लोग भी करीब-करीब पहचाने हुए होते हैं। सरकारी अमले और भूमाफिया के बीच गठजोड़ के जरिए अतिक्रमण कराया जाता है। फरीदाबाद के वनक्षेत्र में वर्षों से आबाद हजारों लोगों की बस्ती को भी इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर हटाना पड़ा था।
ऐसे मामलों में ठगे और मारे जाते हैं, वे गरीब लोग, जिन्हें धोखे में रख कर भूमाफिया कम कीमत पर जमीन बेच देते हैं। यही नहीं, कई जगह तो बस्तियां बसने के बाद उनमें बिजली-पानी की सुविधाएं भी सरकारी विभागों द्वारा उपलब्ध करा दी जाती हैं। लोग राशन कार्ड, आधार पहचान-पत्र जैसे दस्तावेज भी हासिल कर लेते हैं। तब प्रशासन को यह जरूरी क्यों नहीं लगता कि वह वहां बस रहे लोगों को रोके। किसी भी प्रकार के अतिक्रमण को हटाया ही जाना चाहिए, मगर उसका तरीका कानूनी होना चाहिए, ताकि हिंसा की नौबत न आने पाए।