पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में ‘कानवेन्ट आॅफ जीसस ऐंड मैरी’ की इकहत्तर साल की नन के साथ हुआ सामूहिक बलात्कार स्तब्ध कर देने वाली घटना है। अपराधियों ने संस्था में लूटपाट भी की। राज्य सरकार ने घटना की जांच के आदेश दिए हैं और पुलिस ने कुछ व्यक्तियों को हिरासत में भी लिया है। पर अभी घटना की तह में जाना बाकी है। अल्पसंख्यकों और महिलाओं की सुरक्षा के मामले में पश्चिम बंगाल का रिकार्ड दूसरे कई राज्यों से बेहतर रहा है। निश्चय ही इस वारदात ने राज्य की छवि पर बट््टा लगाया है। ईसाई समुदाय आहत है और उन्होंने नदिया और कोलकाता समेत कई जगह विरोध-प्रदर्शन किए हैं। केंद्र सरकार ने इस मामले में राज्य से रिपोर्ट मांगी है।

पर इसी समय हरियाणा में भी ईसाई समुदाय को चिंतित करने वाली घटना हुई। हिसार में एक निर्माणाधीन चर्च को ध्वस्त कर वहां मूर्ति बिठा दी गई। यह जिसकी भी करतूत हो, गौरतलब है कि विश्व हिंदू परिषद के एक पदाधिकारी ने इसका बचाव किया है; साथ में यह भी कहा है कि 1857 की लड़ाई धार्मिक थी। नदिया और हिसार के अपराधियों में कोई साम्य हो या नहीं, दोनों ने ईसाई समुदाय पर हमला बोला। एक अल्पसंख्यक समुदाय को आसान निशाना मानने की प्रवृत्ति दोनों घटनाओं में दिखाई पड़ती है। ज्यादा वक्त नहीं हुआ, जब दिल्ली में एक के बाद एक गिरजाघरों पर हमले हुए थे। अगर चोरी या डकैती के इरादे से ये घटनाएं हुर्इं, तो सवाल है कि पिछले कुछ महीनों में ही इनमें क्यों तेजी दिखाई दी?

ईसाइयों को निशाना बनाने का सिलसिला 1990 के दशक में ही शुरू हो गया था, इसमें ननों के साथ बलात्कार भी शामिल था। अविभाजित मध्यप्रदेश का झाबुआ कांड इसी तरह का था। गुजरात के डांग में पादरियों और ननों पर हमले और भी सुनियोजित तरीके से हुए, कई गिरजाघर जलाए गए।

केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना बढ़ी है। यह कोई संयोग नहीं हो सकता। जब ऐसी घटनाओं के चलते अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी चिंता प्रकट की, तो केंद्र सरकार को लगा कि देश की अंतरराष्ट्रीय साख को नुकसान हो रहा है।

फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ईसाई समुदाय के एक समारोह को संबोधित करते हुए धार्मिक असहिष्णुता की कड़ी निंदा की, और कहा कि हर किसी को अपनी धार्मिक आस्था का पालन करने और कोई भी धर्म चुनने का अधिकार है। मगर उनके इस बयान को हफ्ता भर भी नहीं बीता था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने मदर टेरेसा के सेवा-कार्यों को धर्म-परिवर्तन के इरादे से जोड़ दिया।

अगर प्रधानमंत्री अपने संदेश को लेकर संजीदा हैं, तो वे अपने लोगों को नफरत भरे बयान देने और अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमलों को उकसाने से क्यों नहीं रोक पा रहे हैं? क्या उन्हें डर है कि सख्ती बरतने पर वे इन लोगों का समर्थन खो बैठेंगे? इन तत्त्वों ने उनके लिए चुनाव में काम किया होगा, पर देश के लोगों ने जनादेश भ्रष्टाचार के खिलाफ और विकास के लिए दिया है। फिर पिछले नौ महीनों के दौरान ऐसे लोगों का हौसला क्यों बढ़ा हुआ दिखता है जो लव जिहाद और घर वापसी जैसे जुमले उछाल कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को हवा देना चाहते हैं?

अपने सेवा-काल में आतंकवाद-विरोधी कार्रवाई के लिए मशहूर हुए पूर्व आइपीएस अधिकारी जूलियो रिबेरो ने ठीक ही कहा है कि मोदी को जनता ने इतनी ताकत दी है कि वे चाहें तो ऐसी घटनाएं एक दिन में थम जाएं। पर ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? क्या इसी तरह सबका साथ सबका विकास के नारे पर अमल होगा!

 

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